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________________ (४२) पर्थ सुगम हैइस सूत्र को उत्थानिका में धवलाकार कहते हैं शेषगुणस्थानानां तत्र सत्वं क्व च न भवेदिति जातारेकस्य भव्यस्यारेका निरसनाथमाह । (पृष्ठ १६२) अर्थ-उन पृवियों के किन २ नारकियों में (किन र द्रव्य शरीरों में) शेष गुणस्थान पाये जाते हैं और किनर नारक शरीरों में वे नहीं पाये जाते हैं इस शङ्का को दूर करने के लिये ही यह ८३ वां सूत्र कहा जाता है । इम उत्थानिका के शब्दों पर 'वेषणा करने एवं भाव पर लक्ष्य देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गुणस्थानों का सम्भव, द्रव्य शरीर पर ही निर्भर है और उसका मूल बोज पर्याप्ति अपर्याप्त हैं। तिरिक्खा मिच्छाइटिसासणसम्माइटिअसं जदसम्माठिाणे सिया पजत्ता सिया अपजत्ता। (सूत्र८४ पृष्ठ १६३ धवल) अर्थ सुगम परन्तु यहां पर तियंवों के जो अपर्याप्त अवस्था में भी चौथा गुणस्थान सूत्र में बताया गया है वह विर्यचों के द्रव्य शरीर भाधार पर हा बताया गया है इस सूत्र का स्पष्टीकरण धवनाकार ने इस प्रकार किया है__ भवतु नाम मिथ्याष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां तिया पर्याप्तापर्याप्वयोः सत्वं तयोस्तोत्पत्स्यविरोधात सम्यग्दृष्यस्तु पुनमें
SR No.010545
Book TitleSiddhanta Sutra Samanvaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri, Ramprasad Shastri
PublisherVanshilal Gangaram
Publication Year
Total Pages217
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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