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विकार मात्र है। वह भायु की व्युच्छित (नाश) होने में निमित्त नहीं है। यदि बीच २ के शरीर विकार को ही मरण मान लिया जाय नो फिर जिसने बाल्यावस्था को पूरा करके यौवन अवस्था को प्राप्त कर लिया है उसका भी भरण कहा जाना चाहिए ? भन मरण तो आयु की समाप्ति में ही होता है।
इस समस्त कथन से यह बात भली भांति सिद्ध हो जाती है कि दूसरे तीसरे गुणस्थान जो नाकियों की पर्याप्त अवस्था में ही सूत्रकार भगवत भूतल पुष्पदन्त रे सूत्र ८० में बताये हैं वे नाकियों के द्रव्य शरीर की हा मुख्यता से बताये हैं। इस सूत्र के अन्नस्तत्व का धवलाकार ने सवथा स्पष्ट कर दिया है कि नाकियों का शरीर बीच २ में अग्नि से जला दिया भो जाता है तो भी वह मरण नहीं है और न व उनकी अपयाप्त अवस्था है। क्योंकि उस शरीर के जन जाने पर भी नाराकयों की मायु समाप्त न होने से उनका मरण नहीं होता है। इसलिये वे पर्याप्त हो रहते हैं। इस प्रकार यह पर्याप्त अपर्याप्त अवस्था का समन्वय नारकियों के द्रव्य शरीर से ही सम्बन्ध रखता है। और उसी पर्याप्त द्रव्य शरीर को मुख्यता से नाकियों के उक्त दो गुणस्थानों का सद्भाव सूत्रकार ने बताया है। __ यदि यहां पर भाववेद को मुख्यता अथवा उसक विरेचन होता तो उस वेद की मुख्यता से ही सत्रकार विवेचन करते, परन्तु उन्हों ने भावों की प्रधानता से यहां विवेचन सर्वथा नहीं