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मुक्ति चादि की बात प्रगट की थी. दिगम्बर धर्म के उस सभा विपरीत बात का समाज के अनेक विद्वानों ने भरने लेखों वा ट्रैक्टों द्वारा खण्डन कर दिया है। विश्य समाप्त हो चुका प्रोफेसर साहब का अब भी मत कुछ भी हो परन्तु वे भी इन खण्डनों को देख कर चुप बैठ गये। परन्तु अब फिर नये रूप शास्त्रों से सिद्धि की विपरीत
से ही स्त्री मुक्ति की
बात पं० खूबचन्द जी द्वारा धवल सिद्धान्त में सद पद जोड़कर तांबे में दबा देने से ही खड़ी हुई है। इस सम्बन्ध में भाज प्रत्येक समाचार पत्र इसी मंगा की चर्चा से भाग रहता 1 बम्बई में विद्वानों में परस्पर विचार विनिमय (लिखित शस्त्रार्थ) भी हो चुके हैं। आम्दालन पर्यात बढ़ चुका है। परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ श्राचार्य शाहिद सागरजी महाराज को इस विषय की विना खड़ी हो गई है। संजद' शब्द केवल तीन अक्षरों का है, उसके सूत्र में रखने या नहीं रखने में उतना ही प्रभाव पड़ेगा जितना मिध्यास्त्र और सम्यक्त्र के रहने नहीं रहने में पड़ता है। वे दोनों भी केवल तीन २ अक्षरों के ही है। संगत शब्द के जोड़ने पर द्रव्यात्री मुक्ति, की सिद्धि शेतावर मन्यता सिद्ध होती है, नहीं रखने से वह नहीं होती है। इसलिये उसके रखने का विरोध किया जा रहा है। सिद्धान्त-विधत नहीं हो यही विरोध का कारण है अन्यथा सिद्ध न शास्त्रों की स्थायी रहा के जिये तो ताम्र पत्र पर लिखे जाने की योजना है वह सब व्यर्थ ही नहीं किन्तु विपरीत साबक दंगो