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--(सिद्ध जनक
ही मंडल विधान) -
आरम्भ और परिग्रहसे सर्वथा रहित, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमे अनुरक्त, मूलगुण और उत्तरगुण रूप निधिसे समृद्ध निरंतर प्रवुद्ध रहनेवाले हे साधु परमेष्ठिन् आप सदा जयवन्त रहें ॥ ६॥
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र और तपरूप आराधनाओसे युक्त और रत्नत्रयसे पवित्र, व्यवहाररूप परम गुणोके भेदोसे पूर्ण कर्माको चूर्ण करनेवाले हे मुनिवर आप सदा जयवन्त रहे ॥ ७ ॥
समीचीन तप और रत्नत्रयसे युक्त, संसारसमुद्रसे तारनेवाले इन पंचपरमेष्ठियोंका जो प्राणी नित्य ध्यान करते है वे देवेन्द्र और नरेन्द्रपदको प्राप्त कर भद्र-समीचीन गुणोके साथ जन्मजरादिके दुःखोसे रहित शिवपदको अंतमे प्राप्त किया करते है ॥८॥
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