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________________ ध्यान की व्यूह-रचना था। नंद और उपनंद दोनों सगे भाई थे। एक भाग नंद का और दूसरा उपनंद का। भगवान् नंद के भाग में भिक्षा के लिए गए। उन्हें नन्द के घर पर बासी भात मिला।" 'वाणिज्यग्राम में आनन्द नाम का गृहपति रहता था। उसके एक दासी थी। उसका नाम था बहुला। वह रसोई बनाती थी। वह बासी भात को डालने के लिए बाहर जा रही थी। उस समय भगवान् वहां पहुंच गए। दासी ने भगवान् को देखा। वह दीन स्वर में बोली, 'भंते ! अभी रसोई नहीं बनी है। यह बासी भात है। यदि आप लेना चाहें तो लें। भगवान् ने हाथ आगे फैलाया। दासी ने बासी भात दिया। भगवान् की समत्व-साधना इतनी सुदृढ़ हो गई है कि अब उन्हें जैसा भी भोजन मिलता है, उसे समभाव से खा लेते हैं । उन्हें कभी सव्यंजन भोजन मिलता है और कभी निव्यंजन। कभी ठंडा भोजन मिलता है और कभी गर्म । कभी पुराने कुल्माष, बक्कस और पुलाक जैसा नीरस भोजन मिलता है और कभी परमान्न जैसा सरस भोजन। पर इन दोनों प्रकारों में उनकी मानसिक समता विखंडित नहीं होती। एक बार भगवान् ने रूक्ष भोजन का प्रयोग प्रारम्भ किया। इस प्रयोग में वे सिर्फ तीन वस्तुएं खाते थे--कोदू का ओदन, बैर का चूर्ण और कुल्माष । यह प्रयोग आठ महीने तक चला। भगवान् ने रसानुभूति का अधिकार रसना को दे दिया। मन उसके कार्य में हस्तक्षेप किया करता था। उसे अधिकार-मुक्त कर दिया। १. आवश्यकचूणि, पूर्वभाग, पृ० २८३, २८४ । २. साधना का ग्यारहवां दर्ष। ३. आवश्यकचूणि, पूर्वभाग, पृ० ३००, ३०१ । ४. मायारो, ६।४।४,५,१३; आचारांगचूणि, पृ० ३२२
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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