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श्रमण महावीर जब मैं अनिमिषदृष्टि से ध्यान करता हूं, तब स्थिर विस्फारित नेत्रों को देखकर बच्चे डर जाते हैं। इस स्थिति में क्या यह अच्छा नहीं होगा कि मैं आदिवासी क्षेत्रों में चला जाऊं। वहां लोग बहुत कम हैं। वहां गांव बहुत कम हैं । पहाड़ ही पहाड़ हैं और जंगल ही जंगल । वहां न मैं किसी के लिए वाधा बनूंगा और न कोई दूसरा मेरे लिए बाधा बनेगा।'
भगवान् के संकल्प और गति में कोई दूरी नहीं रह गई थी। उनका पहला क्षण संकल्प का होता और दूसरा क्षण गति का। वे एक मुक्त विहग की भांति आदिवासी क्षेत्र की ओर प्रस्थित हो गए। न किसी का परामर्श लेना, न किसी की स्वीकृति लेनी और न सौंपना था किसी को पीछे का दायित्व। जो अपना था, वह था प्रदीप । उसकी अखण्ड लौ जल रही थी। बेचारा दीवट उसके साथ-साथ घूम रहा था। ___ महावीर आदिवासी क्षेत्रों में कितनी बार गए ? कहां घूमे ? कहां रहे ? कितने समय तक रहे ? उन्हें वह कैसा लगा? आदिवासी लोगों ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया ? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए मैं चिरकाल से उत्सुक था। मैंने अनेक प्रयत्न किए, पर मेरी भावना की पूर्ति नहीं हुई। आखिर मैंने विचार-संप्रेषण का सहारा लिया। मैंने अपने प्रश्न महावीर के पास संप्रेपित कर दिए। मेरे प्रश्न उन तक पहुंच गए। उन्होंने उत्तर दिए, उन्हें मैं पकड़ नहीं
सका।
महावीर के अनुभवों का संकलन गौतम और सुधर्मा ने किया था, यह सोच मैंने उनके साथ सम्पर्क स्थापित किया। मेरी जिज्ञासाएं उन तक पहुंच गयीं, पर उनके उत्तर मुझ तक नहीं पहुंच पाए। मैंने प्रयत्न नहीं छोड़ा। तीसरी बार मैंने अपनी प्रश्न-सूची देवधिगणी के पास भेजी। वहां मैं सफल हो गया। देवधिंगणी ने मुझे बताया-'महावीर ने आदिवासी क्षेत्र के अपने अनुभव गौतम और सुधर्मा को विस्तार से बताए। उन्होंने महावीर के अनुभव सूत्रशैली में लिखे। मुझे वे जिस आकार में प्राप्त हुए, उसी आकार में मैंने उन्हें आगम-वाचना में विन्यस्त कर दिया।'
'क्या आपको उनकी विस्तृत जानकारी (अर्थ-परम्परा) प्राप्त नहीं थी ?' 'अवश्य थी।' 'फिर आपने हम लोगों के लिए संकेत भर ही क्यों छोड़े ?'
'इससे अधिक और क्या कर सकता था ? तुम मेरी कठिनाइयों को नहीं समझ सकते। मैंने जितना लिपिवद्ध कराया, वह भी तत्कालीन वातावरण में कम नहीं था।'
मैं कठिनाइयों के विस्तार में गए विना अपने प्रस्तुत विषय पर आ गया। मैंने कहा, 'मैं आपसे कुछ प्रश्नों का समाधान पाने की आशा कर सकता हूं ?'