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________________ परम्परा २७५ हुआ। वे केवली हो गए। उन्हें महावीर के जीवनकाल में जो नहीं मिला, वह उनके निर्वाण के बाद मिल गया। ____ अग्निभूति, वायुभूति, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास-इन पांच गणधरों का भगवान् से पहले निर्वाण हो चुका था। व्यक्त, मंडित, मौर्यपुत्र और अकंपित -इन चार गणधरों का निर्वाण भगवान् के निर्वाण के कुछ महीनों वाद हुआ। इन्द्रभूति भगवान् के पश्चात् साढ़े बारह वर्ष और सुधर्मा साढ़े बीस वर्ष जीवित रहे । ये दोनों पचास वर्ष तक गृहवास में रहे। भगवान् का निर्वाण हुआ तब ये ८० वर्ष के थे । गौतम का निर्वाण ६२ वर्ष की तथा सुधर्मा का निर्वाण १०० वर्ष की अवस्था में हुआ। भगवान महावीर तीर्थकर थे। वे परम्परा के कारण हैं, पर परम्परा में नहीं हैं। तीर्थकर की परम्परा नहीं होती । वह किसी का शिष्य नहीं होता और उसका शिष्य तीर्थकर नहीं होता। इस दृष्टि से भगवान् महावीर के धर्म-शासन में प्रथम आचार्य सुधर्मा हुए। वे भगवान् के उत्तराधिकारी नहीं थे। भगवान् ने अपना उत्तराधिकार किसी को नहीं सौंपा । भगवान् के धर्म-संघ के अनुरोध पर सुधर्मा ने धर्म-शासन का सूत्र संभाला। गौतम भगवान् के सबसे ज्येष्ठ शिष्य थे। उनकी श्रेष्ठता भी अद्वितीय थी। पर भगवान के निर्वाण के तत्काल बाद वे केवली हो गये। इसलिए वे आचार्य नहीं बने । केवली किसी का अनुसरण नहीं करता । वह जनता को यह नहीं कहता कि महावीर ने ऐसा कहा, इसलिए मैं यह कह रहा हूं। उसकी भाषा यह होती है कि मैं ऐसा देख रहा हं, इसलिए यह कह रहा हूं। भगवान् महावीर का धर्म-शासन चलाना था। उनकी अनुभूति वाणी को फैलाने का गुरुतर दायित्व संभालने में सुधर्मा सक्षम थे, इसलिए धर्म-संघ ने उन्हें आचार्यपद पर स्थापित किया। बौद्ध पिटकों में मिलता है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद उनके धर्म-संघ में फूट पड़ गयी। मज्झिमनिकाय में लिखा है 'एक वार भगवान् शाक्य जनपद के समागम में विहार कर रहे थे। पावा में कुछ समय पूर्व ही निग्गंठ नातपुत्त की मृत्यु हुई थी। उनकी मृत्यु के अनन्तर ही निगंठों में दो पक्ष हो गए। लड़ाई, कलह और विवाद होने लगा। निग्गंठ एक दूसरे को वचन-बाणों से पीड़ित करते हुए कह रहे थे-तू इस धर्म-विनय को नहीं जानता, मैं इसको जानता हूं। तू इस धर्म-विनय को कैसे जान सकेगा? तू मिथ्या प्रतिपन्न है, मैं सम्यग्-प्रतिपन्न हूं। मेरा कथन हितकारी है, तेरा कथन अहितकारी है। पूर्व कथनीय बात तूने पीछे कही और पश्चात् कथनीय वात पहले कही। तेरा वाद भारोपित है । तू वाद में पकड़ा जा चुका है। अव तू उससे छूटने का प्रयत्न कर । यदि तू समर्थ है तो इस वाद को समेट ले । उस समय नातपुत्तीय निग्गंठों में युद्ध-सा हो रहा था।'
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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