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________________ __ अहिंसा के हिमालय पर हिंसा का बज्रपात छिपने के लिए कोई गढा, दरी, गुफा, दुर्ग, पहाड़, निम्नस्थल या विषमस्थल नहीं मिल रहा है। उस समय वह एकाध ऊन के रेशे, सन के रेशे, रुई के रेशे या तृण के अग्रभाग से अपने को ढंककर-ढंका हुआ न होने पर भी वह मान ले कि मैं ढंका हुआ हूं। तुम दूसरे न होते हुए भी 'मैं दूसरा हूं' कहकर अपने आपको छिपाना चाहते हो । गोशालक ! ऐसा मत करो। ऐसा करना उचित नहीं है।' भगवान् महावीर की बात सुनकर गोशालक क्रुद्ध हो गया। उसने भगवान् से अनेक आक्रोशपूर्ण बातें कहीं। फिर बोला-'मुझे लगता है अब तुम नष्ट हो गए, विनष्ट हो गए, भ्रष्ट हो गए। इसमें कोई संदेह नहीं तुम नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट-तीनों एक साथ हो गए। पता नहीं आज तुम बच पाओगे या नहीं। अब मेरे हाथों तुम्हारा अप्रिय होने वाला है।' __गोशालक दो क्षण मौन रहा। उस समय भगवान् महावीर का पूर्वदेशीय शिष्य सर्वानुभूति नाम का अनगार उठा । उसका भगवान् के प्रति अत्यन्त धर्मानुराग था इसलिए वह अपने को रोक नहीं सका। वह गोशालक के पास जाकर बोला-'गोशालक ! कोई व्यक्ति किसी श्रमण या ब्राह्मण के पास एक भी धार्मिक वचन सुनता है, वह उसे वन्दना करता है, उसकी उपासना करता है। फिर भगवान् महावीर ने तो तुम्हें प्रवजित किया, बहुश्रुत किया और तुम उन्हीं के साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हो ? गोशालक ! ऐसा मत करो। ऐसा करना उचित नहीं है।' सर्वानुभूति की बात सुन गोशालक उत्तेजित हो उठा। उसने अपनी तेजस शक्ति का प्रयोग किया और सर्वानुभूति को, भगवान् के देखते-देखते, भस्म कर दिया। ___ सर्वानुभूति को भस्म कर गोशालक फिर भगवान् को कोसने लगा। उस समय अयोध्या से प्रवजित सुनक्षत्र नाम का अनगार उठा । उसने गोशालक को समझाने का प्रयत्न किया। सुनक्षत्र की बातें सुन गोशालक फिर उत्तेजित हो गया। उसने फिर तैजस शक्ति का प्रयोग किया और सुनक्षत्र को भस्म कर डाला। अब भगवान् स्वयं बोले-'गोशालक ! मैंने तुम्हें प्रव्रजित किया, बहुश्रुत किया और तुम मेरे ही साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हो ? गोशालक ! ऐसा मत करो। ऐसा करना उचित नहीं है।' भगवान् का प्रयत्न अनुकूल परिणाम नहीं ला सका। गोशालक और अधिक क्षुब्ध हो गया। वह सात-आठ चरण पीछे हटा । उसने पूरी शक्ति लगा भगवान् पर तैजस शक्ति का प्रयोग किया। उस आकस्मिक प्रयोग ने भगवान् के शिष्यों को हतप्रभ-सा कर दिया। वातावरण में भयानक सन्नाटा छा गया। चारों ओर धूआं और आग की लपटें उछलने लगीं। दूर-दूर के लोग एक साथ चीत्कार कर उठे।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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