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अहिंसा के हिमालय पर हिंसा का वज्रपात
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फैली। वह फैलती-फैलती गोशालक के कानों तक पहुंच गई। उसे वह बात प्रिय नहीं लगी। उसका मन प्रज्वलित हो गया।
एक दिन भगवान् के शिष्य आनन्द नामक श्रमण आहार की एषणा के लिए श्रावस्ती में जा रहे थे। गोशालक ने उन्हें देखा। उन्हें बुलाकर कहा-'आनन्द ! यहां आओ और एक दृष्टान्त सुनो।' आनन्द गोशालक के पास चले गए। वे सुनने की मुद्रा में खड़े हो गए। गोशालक कहने लगा-'पुराने जमाने की बात है। कुछ व्यापारी माल लेकर दूर देश जा रहे थे। रास्ते में जंगल आ गया। वे भोजन-पानी की व्यवस्था कर जंगल में चले । कुछ दूर जाने पर उनके पास का जल समाप्त हो गया। आसपास में न कोई गांव और न कोई जलाशय । वे प्यास से आकुल होकर चारों ओर जल खोजने लगे। खोजते-खोजते उन्होंने चार बांबियां देखीं । एक बांबी को खोदा । उसमें जल निकला-शीतल और स्वच्छ । व्यापारियों ने जल पिया और अपने बर्तन भर लिये। कुछ व्यापारियों ने कहा-अभी तीन बांबियां बाकी हैं। इन्हें भी खोद डालें । पहली से जलरत्न निकला है । सम्भव है दूसरी से स्वर्णरत्न निकल आए। उनका अनुमान सही निकला। उन्होंने दूसरी बांबी को खोदा, उसमें सोना निकला। उनका मन लालच से भर गया। अब वे कैसे रुक सकते थे? उन्होंने तीसरी बांबी की भी खुदाई की। उसमें रत्नों का खजाना मिला । उनका लोभ सीमा पार कर गया । वे परस्पर कहने लगे-पहली में हमें जल मिला, दूसरी में सोना और तीसरी में रत्न । चौथी में सम्भव है और भी मूल्यवान् वस्तु मिले। उनमें एक वणिक् अनुभवी और सवका हितैषी था। उसने कहा-'हमें बहुत मिल चुका है । अब हम लालच न करें। चौथी बांबी को ऐसे ही छोड़ दें। हो सकता है इसमें कुछ और ही निकले।' उसके इस परामर्श पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। उन व्यापारियों के हाथ चौथी बांबी को तोड़ने आगे बढ़े । जैसे ही उन्होंने बांबी को तोड़ने का प्रयत्न किया, एक भयंकर फुफकार से वातावरण कांप उठा । एक विशालकाय सर्प बाहर आया और बांबी के शिखर पर चढ़ गया। वह दृष्टिविष था-उसकी आंखों में जहर था । उसने सूर्य की ओर देखा, फिर अपलक आंखों से उन व्यापारियों के सामने देखा। उसकी आंखों से इतनी तीव्र विष-रश्मियां निकलीं कि वे सब के सब व्यापारी वहीं भस्म हो गए। एक वही व्यापारी बचा जिसने सबको रोका था।
आनन्द ! तुम्हारे धर्माचार्य पर भी यही दृष्टान्त लागू होता है । उन्हें वहुत मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा मिली है । फिर भी वे संतुष्ट नहीं हैं । वे कहते हैंगोशालक मेरा शिष्य है। वह जिन नहीं है। तुम जाओ और अपने धर्माचार्य को सावधान कर दो, अन्यथा मैं जाऊंगा और उनकी वही दशा करूंगा जो दृष्टि-विष सर्प ने उन व्यापारियों की की थी। सिर्फ तुम बच पाओगे।'
आनन्द के मन में एक हलचल-सी पैदा हो गई। वे हालाहला कुम्भकारी की