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संघ-भेद
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जानता था। उसने एक दिन साध्वी प्रियदर्शना की चादर पर एक अग्निकण फेंका। चादर जलने लगी। साध्वी प्रियदर्शना ने भावावेश में कहा-'आर्य ! यह क्या किया? मेरी चादर जल गई।' ढंक बोला-'चादर जली नहीं, वह जल रही है। जमालि के मतानुसार चादर के जल चुकने पर ही कहा जा सकता है कि चादर जल गई। अभी आपकी चादर जल रही है, फिर आप क्यों कहती हैं कि मेरी चादर जल गई ?'
ढंक के तर्क ने साध्वी प्रियदर्शना के मानस पर गहरी चोट की। उसका विचार परिवर्तित हो गया। वह अपने साध्वी-समुदाय के साथ पुनः भगवान् महावीर के संघ में सम्मिलित हो गई।
१. आवश्यकचूणि, पूर्वभाग, पृ. ४१८ : साविय णं पियदंसणा"पण्णवेति ।
''ताहे गता सहस्सपरिवारा सामि उवसंपज्जित्ताणं विहरति ।