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श्रमण महावीर
'जमालि ! यह जीव कभी मनुष्य होता है, कभी तिर्यंच, कभी देव और कभी नारक । यह विविध योनिचक्रों में रूपांतरित होता रहता है । इसलिए मैं कहता हूं, यह जीव अशाश्वत है। ___'जमालि ! तुम नय के सिद्धान्त को नहीं जानते इसलिए तुम नहीं बता सके कि लोक शाश्वत है या अशाश्वत, जीव शाश्वत है या अशाश्वत । _ 'जमालि ! तुम नय के सिद्धान्त को नहीं जानते, इसलिए तुम क्रियमाण कृत के सिद्धान्त में दिग्मूढ़ हो गए।
'जमालि ! मैंने दो नयों का प्रतिपादन किया है१. निश्चयनय-वास्तविक सत्यस्पर्शी दृष्टिकोण। २. व्यवहारनय-व्यावहारिक सत्यस्पर्शी दृष्टिकोण ।
'मैंने क्रियमाण के सिद्धान्त का निरूपण निश्चय नय के आधार पर किया है । उसके अनुसार क्रियाकाल और निष्ठाकाल अभिन्न होते हैं। प्रत्येक क्रिया अपने क्षण में कुछ निष्पन्न करके ही निवृत्त होती है। यदि क्रियाकाल में कार्य निष्पन्न न हो तो वह क्रिया के निवृत्त होने पर किस कारण से निष्पन्न होगा? वस्त्र का पहला तन्तु यदि वस्त्र नहीं है तो उसका अन्तिम तन्तु वस्त्र नहीं हो सकता। अन्तिम तन्तु का निर्माण होने पर कहा जाता है कि वस्त्र निर्मित हो गया। यह स्थूल दृष्टि है, व्यवहार नय है । वास्तविक दृष्टि यह है कि तन्तु-निर्माण के प्रत्येक क्षण ने वस्त्र का निर्माण किया है। यदि पहले तन्तु के क्षण में भी वस्त्र का निर्माण नहीं होता तो अन्तिम तन्तु के क्षण में भी वस्त्र का निर्माण नहीं हो पाता।'
भगवान् ने नयों की व्याख्या कर जमालि को समझाया पर उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। वह सदा के लिए महावीर के संघ से मुक्त होकर अपने सिद्धान्त को फैलाता रहा। यह घटना भगवान् के केवली होने के चौदहवें वर्ष में घटित हुई। संघ की स्थापना का भी यह चौदहवां वर्ष था । तेरह वर्षों तक संघ में कोई भेद नहीं हुआ। चौदहवें वर्ष में यह संघ-भेद का सनपात हआ। भगवान का व्यक्तित्व इतना विराट् था कि जमालि द्वारा संघ में भेद डालने का तीव्र प्रयत्न करने पर भी उसका व्यापक प्रभाव नहीं हुआ।
प्रियदर्शना जमालि की पत्नी थी। वह जमालि के साथ ही भगवान् के पास दीक्षित हुई थी। उसके पास साध्वियों का समुदाय था। उसने जमालि का साथ दिया। वह भगवान् के संघ से अलग हो गई । एक बार वह अपने साध्वी-समुदाय के माय विहार करती हुई श्रावस्ती पहुंची। वहां ढंक नाम का कुम्हार था। वह उनकी भांडशाला में ठहरी । वह भगवान महावीर का उपासक था। वह तत्त्व को
1. भगाई. ६।१५६.२३४; आवश्यकणि, पूर्वभाग, पृ० ४१६-४१६ । २. पायवरांग, माग, १० ४१६ : चौद्दम वासाणि 'उप्पप्णोत्ति ।