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________________ सहयात्रा : सहयात्री २५१ 'नहीं, कुछ नहीं है । आप निश्चिन्त रहिए।' विद्युत् कोतवाल को आश्वस्त कर आगे बढ़ गया। कुछ ही क्षणों में आरक्षीकेन्द्रों को आदेश मिला कि महारानी चिल्लणा का हार किसी ने चुरा लिया है। चोरों को पकड़ा जाए। ___ कोतवाल ने आरक्षीदल के साथ विद्युत् का पीछा किया। उसे इसका पता चल गया। अब हार को पास में रखना खतरे से खाली नहीं था। वह श्मशान की ओर दौड़ा। वारिषेण ध्यानमुद्रा में खड़ा था। विद्युत् उसके पास हार छोड़कर भाग गया। आरक्षीदल विद्युत् का पीछा करता हुआ श्मशान में पहुंचा। उसने देखा, महारानी का हार एक साधक के पास पड़ा है। कोतवाल ने सोचा, कोई ढोंगी आदमी है। यह हार चरा लाया और अब डर के मारे ध्यान का स्वांग रच रहा है। कोतवाल ने उसे बंदी बना राजा के सामने प्रस्तुत किया। राजा ने देखा-यह राजकुमार वारिषेण है । यह अपनी मां का हार कैसे चुरा सकता है ? राजा समझ नहीं सका। पर वह करे क्या ? कोतवाल उसी को चोर सिद्ध कर रहा था । साक्ष्य भी यही कह रहे थे कि हार इसी ने चुराया है। राजा धर्म-संकट में फंस गया। एक ओर अपना प्रिय पुत्र और दूसरी ओर न्याय । तराजू के एक पलड़े में पितृत्व था और दूसरे पलड़े में न्याय का संरक्षण। न्याय का पलड़ा भारी हुआ। राजा ने हृदय पर पाषाण रखकर वारिषेण को मृत्युदंड दे दिया। वधक उसे मारने के लिए श्मशान में ले गए। वारिषेण महावीर की श्मशान-प्रतिमा को साध चुका था। उसके मन में भय की एक रेखा भी नहीं उभरी। वह जिस शांतभाव से बन्दी बनकर आया था उसी शान्तभाव से मृत्यु का वरण करने के लिए चला गया। इन दोनों स्थितियों में उसका ध्यान भंग नहीं हुआ। उसका मनोबल इतना बढ़ गया कि वधक हतप्रभसा हो गया । उसका हाथ नहीं उठ रहा था वध के लिए, फरसा तो उठ ही नहीं रहा था । जो भी वधक वारिषेण के सामने आया वह हतप्रभ होकर खड़ा रह गया। श्रेणिक को इसकी सूचना मिली। वह वारिषेण के पास पहुंचा। उसने कहा-'पुत्र ! मुझे विश्वास था कि तुम चोरी नहीं कर सकते। मैं परिचित हं तुम्हारी धार्मिकता से । पर मैं क्या करूं, न्याय का प्रश्न था । तुम जानते हो, न्याय अन्धा और बहरा होता है। उसमें सचाई को देखने और सुनने की क्षमता नहीं होती । वह देखता और सुनता है साक्ष्य को। साक्ष्य बता रहे थे कि हार तुमने चुराया है । तुम्हारी सचाई ने तुम्हें निर्दोष प्रमाणित कर दिया। सत्य का वध नहीं किया जा सकता-महावीर के इस सिद्धान्त ने तुम्हें अमर बना दिया है। राजगृह का हर व्यक्ति आज तुम्हारी अमर गाथा गा रहा है। पुत्र ! मुझे क्षमा करना । यदि मैं तुम्हें मृत्युदण्ड नहीं देता तो तुम मृत्यु के द्वार पर पहुंचकर अमर
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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