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श्रमण महावीर
'गृहपति ! श्रद्धा से ज्ञान ही बड़ा है।'
'भंते ! जब मेरी इच्छा होती है, मैं प्रथम-ध्यान को प्राप्त होकर विहार करता हूं। द्वितीय-ध्यान को, तृतीय-ध्यान को और चतुर्थ-ध्यान को प्राप्त कर विहार करता हूं।'
'भंते ! मैंने स्वयं ऐसा जाना और देखा है। ऐसी स्थिति में क्या मैं किसी ब्राह्मण या श्रमण की श्रद्धा से ऐसा जानूंगा कि अवितर्क-अविचार समाधि होती है तथा वितर्क और विचार का निरोध होता है ?'
चिन की यह बात सुनकर निग्गंठ नातपुत्त ने अपनी मण्डली से कहा'आप लोग देखें-चित्र गृहपति कितना टेढ़ा है, शठ है, कपटी है।' .
'भंते ! अभी तो आपने कहा था कि चित्र कितना सीधा है, सच्चा है और निष्कपट है और अभी आप कहते हैं कि वह कितना टेढ़ा है, शठ और कपटी है । भंते ! यदि आपकी पहली बात सच है तो दूसरी बात झूठ और यदि दूसरी बात सच है तो पहली बात झूठ।'
भगवान् महावीर सामयिक समस्याओं के प्रति भी बहुत जागरूक थे। उन्होंने मुनि के लिए माधुकरी वृत्ति का प्रतिपादन किया। वे नहीं चाहते थे कि कोई मुनि गृहस्थ के लिए भार बने ।
बौद्ध भिक्षु निमंत्रित भोजन करते थे। इसलिए अकाल के समय में उनका समुदाय कठिनाई भी उपस्थित करता था। भगवान् महावीर के उपासक असिवन्धकपुन ने इस ओर संकेत किया था
'एक समय भगवान् बुद्ध कौशल में चारिका करते हुए बड़े भिक्षु-संघ के साथ नालन्दा पहुंचे। वहां प्रावारिक आम्रवन में ठहरे।
उस समय नालन्दा में दुर्भिक्ष था। लोगों के प्राण निकल रहे थे। मरे हुए लोगों की उजली-उजली हड्डियां विकीर्ण पड़ी हुई थीं। लोग सूखकर सलाई वन गए थे।
उस समय निग्गंठ नातपुत्त अपनी बड़ी मण्डली के साथ नालन्दा में ठहरा हुआ था।
तव नातपुत्त का श्रावक असिवन्धकपून ग्रामणी वहां गया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। नातपुत्त ने कहा--'ग्रामणी ! तुम जाकर श्रमण गौतम के साथ वाद करो, इससे तुम्हारा बड़ा नाम होगा।'
'भंते ! इतने महानुभाव श्रमण गौतम के साथ मैं कैसे वाद करूं?' ____ 'ग्रामणी ! जहां श्रमण गौतम हैं, वहां जाओ और बोलो-भंते ! भगवान् अनेक प्रकार से कुलों के उदय, रक्षा और अनुकम्पा का वर्णन करते हैं न ?'
'ग्रामणी ! यदि श्रमण गौतम कहेगा कि 'हां ग्रामणी ! बुद्ध अनेक प्रकार से कुलों के उदय, रक्षा और अनुकम्पा का वर्णन करते हैं तो तुम कहना-भंते !