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जीवनवृत्त: कुछ चित्र कुछ रेखाएं
गर्म सीसा डलवाया। मेरी हिंसा उसके प्राण लेकर ही शान्त हुई । '
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मैं अनुभव करता हूं कि यह मेरा जन्म हिंसा का प्रायश्चित्त करने के लिए ही हुआ है । मेरी सारी रुचि, सारी श्रद्धा, सारी भावना अहिंसा की आराधना में लग रही है । उसके लिए मैं जो कुछ भी कर सकता हूं, करूंगा । मेरे प्राण तड़प रहे हैं उसकी सिद्धि के लिए । मैं चाहता हूं कि वह दिन शीघ्र आए जिस दिन मैं अहिंसा से अभिन्न हो जाऊं, किसी जीव को कष्ट न पहुंचाऊं । आज क्या हो रहा है ? हम बड़े लोग छोटे लोगों के प्रति सद्व्यवहार नहीं करते। उनकी विवशता का पूरापूरा लाभ उठाते हैं । पशु की तरह उनका क्रय-विक्रय करते हैं । उनके साथ कठोरता बरतते हैं। मुझे लगता है जैसे हमने मानवीय एकता को समझा ही नहीं । छोटा-सा अपराध होने पर कठोर दण्ड दे देते हैं । नाना प्रकार की यातनाएं देना छोटी बात है, अवयवों को काट डालना भी हमारे लिए बड़ी बात नहीं है । मनुष्य के प्रति हमारा व्यवहार ऐसा है, तब पशुओं के प्रति अच्छे होने की आशा कैसे की जा सकती है ? मैं इस स्थिति को बदलना चाहता हूं । यह डंडे के बल पर नहीं बदली जा सकती । यह वदली जा सकती है हृदय परिवर्तन के द्वारा । यह वदली जा सकती है प्रेम की व्यापकता के द्वारा। इसके लिए मुझे हर आत्मा के साथ आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करना होगा । समता की वेदी पर अपने अहं का विसर्जन करना होगा। यह कार्य मांगता है बहुत बड़ा बलिदान, बहुत बड़ी साधना और बहुत बड़ा त्याग ।'
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माता-पिता की समाधि-मृत्यु
महावीर के मन में अचानक उदासी छा गई, जैसे उज्ज्वल प्रकाश के बाद नीले नभ में अकस्मात् रात उतर आती है । वे कारण की खोज में लग गए। वह पूर्व - सूचना थी महाराज सिद्धार्थ और देवी त्रिशला के देहत्याग की । कुमार के मन में अन्तःप्रेरणा जागी । वे तत्काल सिद्धार्थ के निषद्या-कक्ष में गए। वहां सिद्धार्थ और त्रिशला -- दोनों विचार-विमर्श कर रहे थे। कुमार ने देखा, वे किसी गंभीर विषय पर बात कर रहे हैं । इसलिए उनके पैर द्वार पर ही रुक गए। सिद्धार्थ ने कुमार को देखा और अपने पास बुला लिया । वे बोले, 'कुमार ! तुम ठीक समय पर आए हो। हमें तुम्हारे परामर्श की जरूरत थी । हम तुम्हें बुलाने वाले हो थे । '
कुमार ने प्रणाम कर कहा, 'मैं आपकी कृपा के लिए आभारी हूं | आप आदेश दें, में लापकी क्या सेवा कर सकता हूं ? '
'कुमार ! तुम देख रहे हो, हमारी अवस्था परिपक्व हो गई है । पता नहीं
१. (क) महावीरचरियं १०३, १० ६२ ।
(घ) विषष्टिमला सपुरुषचरित १०।१।१७७ ।