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समता के तीन आयाम
२०१ पता लग गया । पर कौन जाए ? कैसे जाए ? भगवान महावीर और राजगृह के वीच में दिख रहा था सवको अर्जुन और उसका प्राणघाती मुद्गर। जनता के मन में उत्साह जागा पर समुद्र के ज्वार की भांति पुनः समाहित हो गया।
सुदर्शन का उत्साह शान्त नहीं हुआ। उसने भगवान् की सन्निधि में जाने का निश्चय कर लिया। उसकी विदेह-साधना बहुत प्रवल थी। वह मौत के भय से अतीत हो चुका थो । उसने अपने माता-पिता से कहा
'अम्ब-तात ! भगवान् महावीर गुणशीलक चैत्य में पधार गए हैं।' 'वत्स ! हमने भी सुना है जो तुम कह रहे हो।' 'अव हमारा क्या धर्म है ?' 'हमारा धर्म है भगवान् की सन्निधि में उपस्थित होना । किन्तु...' 'अंब-तात ! भय के साम्राज्य में किन्तु का अन्त कभी नहीं होगा।' 'क्या जीवन का कोई मूल्य नहीं है ?'
'धर्म का मूल्य उससे बहुत अधिक है। अल्पमूल्य का बलिदान कर यदि मैं वहुमूल्य को बचा सकू तो मुझे प्रसन्नता ही होगी।'
. 'वत्स ! अभी मगध सम्राट् श्रेणिक भी भगवान् की सन्निधि में नहीं पहुंचे हैं, तब हमें क्यों इतनी चिन्ता मोल लेनी चाहिए ?' ___ 'यह चिन्ता का प्रश्न नहीं है, यह धर्म का प्रश्न है। यह सत्ता का प्रश्न नहीं है, यह श्रद्धा का प्रश्न है । क्या श्रद्धा के क्षेत्र में मेरा स्थान सम्राट् से अग्रिम पंक्ति में नहीं हो सकता?'
'क्यों नहीं हो सकता?' 'फिर आप सम्राट् की ओट में मुझे क्यों रोकना चाहते हैं ?'
'अच्छा वत्स ! तुम भगवान् की शरण में जाओ। तुम्हारा कल्याण हो। निर्विघ्न हो तुम्हारा पथ।'
सुदर्शन माता-पिता का आशीर्वाद ले घर से चला। मित्रों ने एक बार फिर रोका और टोका उन सबने, जिन्हें इस बात का पता चला । पर सत्याग्रही के पैर कब रुक सके हैं ? उसके पैर जिस दिशा में उठ जाते हैं, वे मंजिल तक पहुंचे विना रुक नहीं पाते । सुदर्शन अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ा। वह अकेला था। उसके साथ था केवल श्रद्धा का बल। वह प्रतोली-द्वार तक पहुंचा। आरक्षिक ने उसे रोककर पूछा
'कहां जाना चाहते हो ?' 'गुणशीलक चैत्य में।' 'किसलिए ?' 'भगवान् महावीर की उपासना के लिए।' 'बहुत अच्छा । किन्तु येष्ठिपुन ! इस राजपथ से जाना क्या मौत को निमंत्रण