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जीवनवृत्त : कुछ चित्र-कुछ रेखाएं
और मध्य एशियाई प्रदेशों में विहार कर रहे थे । उनके दो शिष्य क्षत्रियकुंड नगर में आए। एक का नाम था संजय और दूसरे का विजय । वे दोनों चारण-मुनि थे । उन्हें आकाश में उड़ने की शक्ति प्राप्त थी । उनके मन में किसी तत्त्व के विषय में संदेह हो रहा था । वे उसके निवारण का प्रयत्न कर रहे थे, पर वह हो नहीं सका । वे सिद्धार्थ के राज- प्रासाद में आए। शिशु वर्द्धमान को देखा । तत्काल उनका सन्देह दूर हो गया। उनका मन पुलकित हो उठा। उन्होंने वर्द्धमान को 'सन्मति' के नाम से संबोधित किया ।'
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प्रश्न का ठीक उत्तर मिलने पर संदेह का निवर्तन हो जाता है । यह संदेहनिवर्तन की साधारण पद्धति है । कभी-कभी इससे भिन्न असाधारण घटना भी घटित होती है । महान् अहिंसक की सन्निधि प्राप्त होने पर जैसे हिंसा का विप अपने आप धुल जाता है, प्रज्वलित वैर मैत्री में बदल जाता है, वैसे ही अंतर् के आलोक से आलोकित आत्मा की सन्निधि प्राप्त होने पर मन के संदेह अपने आप समाधान में बदल जाते हैं ।
धार्मिक परम्परा
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उस समय भारत के उत्तर-पूर्व में दो मुख्य धार्मिक परम्पराएं चल रही थींश्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा । सिद्धार्थ और विशला श्रमण परम्परा के अनुयायी थे । वे भगवान् पार्श्व के शिष्यों को अपना धर्माचार्य मानते थे । वर्द्धमान जिस परम्परा का उन्नयन किया, उसके संस्कार उन्हें पैतृक विरासत में मिले थे । वे किसी श्रमण के पास गए और धर्म - चर्चा की, इसकी कोई जानकारी प्राप्त नहीं है । उनका ज्ञान बहुत प्रबुद्ध था । वे सत्य और स्वतन्त्रता की खोज में अकेले ही घर से निकले थे । कुछ वर्षो तक वे अकेले ही साधना करते रहे ।
राजनीतिक वातावरण
उन दिनों वज्जि गणतंत्र वहुत शक्तिशाली था । उसकी राजधानी थी वैशाली । उसको अवस्थिति गंगा के उत्तर, विदेह में थी । वज्जिसंघ में लिच्छवि और विदेह - दोनों शासक सम्मिलित थे । इसके प्रधान शासक लिच्छवि राजा चेटक थे । सिद्धार्थ वज्जि संघ के एक सदस्य राजा थे । वर्द्धमान गणतंत्र के वातावरण में पले थे | गणतंत्र में सहिष्णुता, वैचारिक उदारता, सापेक्षता, स्वतंत्रता और एक-दूसरे को निकट से समझने की मनोवृत्ति का विकास अत्यन्त आवश्यक होता है । इन विशेषताओं के बिना गणतंत्र सफल नहीं हो सकता । वहिंसा और
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९. उत्तरपुराण, पवं ७४, श्लोक, २८२, २८३ ।
२ लावाला १५/२५ ।