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श्रमण महावीर
समाधि-मरण की आराधना कर रहा है। वे आनन्द के उपासना-गृह में गए। आनन्द ने उनका अभिवादन किया। धर्मचर्चा के प्रसंग में आनन्द ने कहा-'भंते ! भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अप्रमाद की साधना से मुझे विशाल अवधिज्ञान (प्रत्यक्ष ज्ञान) प्राप्त हुआ है।'
गौतम बोले-'आनन्द ! गृहस्थ को प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है पर इतना विशाल नहीं हो सकता। तुम कहते हो कि इतना विशाल प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ है, इसके लिए तुम प्रायश्चित्त करो।'
'भंते ! क्या भगवान् ने सत्य बात कहने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है ?'
'नहीं, सर्वथा नहीं।'
'भंते ! यदि भगवान् ने सत्य बात कहने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान नहीं किया है तो आप ही प्रायश्चित्त करें।'
आनन्द की यह बात सुन गौतम के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। वे वहां से प्रस्थान कर भगवान् महावीर के पास गए । सारी घटना भगवान् के सामने रखकर पूछा-भंते ! प्रायश्चित्त आनन्द को करना होगा या मुझे ?' ___ भगवान् ने कहा-'आनन्द ने जो कहा है, वह जागरण के क्षण में कहा है। वह सही है । उसे प्रायश्चित्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रमाद तुमने किया है । तुमने जो कहा, वह सही नहीं है, इसलिए तुम ही प्रायश्चित्त करो। आनन्द के पास जाओ, उसकी सत्यता को समर्थन दो और क्षमायाचना करो।'
गौतम तत्काल आनन्द के उपासना-गृह में पहुंचे। भगवान् के प्रधान शिष्य का आनन्द के पास जाना, उसके ज्ञान का समर्थन करना, अपने प्रमाद का प्रायश्चित्त करना और क्षमा मांगना-व्यक्ति-निर्माण की दिशा में कितना अद्भुत प्रयोग है।"
भगवान् जानते थे कि असत्य के समर्थन से गौतम की प्रतिष्ठा सुरक्षित नहीं रह सकती। सत्यवादी आनन्द को झुठलाकर यदि गौतम की प्रतिष्ठा को बचाने का यत्न किया जाता तो गौतम का अहं अमर हो जाता, उनकी आत्मा मर जाती। आत्मा का हनन भगवान् को क्षण भर के लिए भी इष्ट नहीं था। फिर वे क्या करते-गौतम की आत्मा को बचाते या उनके अहं को? ____ महावीर के धर्म का पहला पाठ है-जागरण और अंतिम पाठ है-जागरण। बीच का कोई भी पाठ जागरण की भापा से शून्य नहीं है। जहां मूर्छा आई वहां महावीर का धर्म विदा हो गया । मूर्छा और उनका धर्म-दोनों एक साथ नहीं चल सकते।
1. उवासगदसा ओ, ११७६-८२।