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श्रमण महावीर
में जिज्ञासा है कि लोक सान्त है या अनन्त ?'
'भंते ! है । मैं इसका व्याकरण चाहता हूं।'
'मैं इसका सापेक्ष दृष्टि से व्याकरण करता हूं। उसके अनुसार लोक सान्त भी है और अनन्त भी है।'
'भंते ! यह कैसे ?'
'लोक एक है, इसलिए संख्या की दृष्टि से वह सान्त है। लोक असंख्य आकाश में फैला हुआ है, इसलिए क्षेत्र की दृष्टि से वह सान्त है। लोक था, है और होगा, इसलिए काल की दृष्टि से वह अनन्त है । लोक अनन्त वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों से युक्त है, इसलिए पर्याय की दृष्टि से वह अनन्त है।"
अविरोध में विरोध देखने वाला एक चक्षु होता है और विरोध में अविरोध देखने वाला अनन्त चक्षु । भगवान् महावीर ने अनन्त चक्ष होकर सत्य को देखा और उसे रूपायित किया।
१. भगवई, २१४५ ।