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सह-अस्तित्व और सापेक्षता गया । इन दोनों पर्यायों के नीचे जो अस्तित्व है, वह पहले और पीछे-दोनों क्षणों में होता है-दूध-पर्याय में भी होता है और दही-पर्याय में भी होता है ।
नैयायिक मानते हैं कि आकाश नित्य है और दीपशिखा अनित्य है। बौद्ध मानते हैं कि दीपशिखा भी अनित्य है और आकाश भी अनित्य है।
दीपशिखा का नित्य होना और आकाश का अनित्य होना नैयायिक की दृष्टि में विरोध है । दीपशिखा का अनित्य और नित्य-दोनों होना बौद्ध की दृष्टि में विरोध है।
महावीर ने सत्य को इन दोनों से भिन्न दृष्टि से देखा है। उन्होंने कहादीपशिखा को अनित्य कहा जाता है, वह नित्य भी है और आकाश को नित्य कहा जाता है, वह अनित्य भी है। नित्य और अनित्य परस्पर-विरोधी नहीं हैं । एक ही तने की दो अनिवार्य शाखाएं हैं। दीपशिखा प्रतिक्षण क्षीण होती जाती है, इसलिए नैयायिक और बौद्ध का उसे अनित्य मानना अनुचित नहीं है । आकाश कभी भी समाप्त नहीं होता, इसलिए नैयायिक का उसे नित्य मानना भी अनुचित नहीं है। महावीर ने यह नहीं कहा कि दीपशिखा को अनित्य मानना अनुचित है । उसका अनित्य होना प्रत्यक्ष है, इसलिए उसे अनुचित कैसे कहा जा सकता है ? उन्होंने कहा-दीपशिखा को अनित्य ही मानना या नित्य न मानना अनुचित है। दीपशिखा एक पर्याय है । परमाणुओं का तैजस रूप में होना दीपशिखा है। उसके समाप्त होने का अर्थ है-परमाणुओं के तैजस पर्याय की समाप्ति । तैजस पर्याय का समाप्त होना परमाणुओं का समाप्त होना नहीं है। परमाणु शाश्वत हैं । वे तैजस पर्याय के होने पर भी होते हैं और उनके न होने पर भी होते हैं। ।
गौतम ने पूछा-'भंते ! जीव शाश्वत है या अशाश्वत ?' भगवान् ने कहा-'गौतम ! जीव शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है।' 'भंते ! दोनों कैसे ?'
'पर्याय की ऊमियों के तल में जो चेतना का स्थिर शान्त सागर है, वह शाश्वत है। उस सागर में ऊर्मियां उन्मज्जित और निमज्जित होती रहती हैं, वे अशाश्वत हैं । कर्मियों का अस्तित्व सागर से भिन्न नहीं है और सागर का अस्तित्व ऊर्मियों से भिन्न नहीं है। अमि-रहित सागर और सागर-रहित ऊर्मि का अस्तित्व उपलब्ध नहीं होता । इसीलिए मैं कहता हूं कि जीव शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। पर्यायों के तल में तिरोहित चेतना के अस्तित्व को देखें तव हम कह सकते हैं कि जीव शाश्वत है । चेतना के अस्तित्व पर उफन ते पर्यायों को देखें तव हम कह सकते हैं कि जीव अशाश्वत है।
'मूल तत्त्व जितने थे, उतने ही हैं और उतने ही होंगे। उनमें जो है, वह कभी नष्ट नहीं होता और जो नहीं है, वह कभी उत्पन्न नहीं होता। वे अवस्थित हैं, उत्पाद और विनाश के चक्र से मुक्त हैं। वे दो हैं-चेतन और अचेतन । ये दोनों