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________________ प्रान्ति का सिंहनाद १६७ को सुना दी। दोनों की मांखों में बारी-बारी से दो चिन घूमने लगे-एक उस कालरात्रि में नदी-तट पर काम कर रहे मम्मण का और दूसरा स्वर्णमय रत्नजटित वृषभयुगल के निर्माता मम्मण का। इस घटना के आलोक में हम महावीर के असंग्रह प्रत का मूल्यांकन कर सकते हैं । हम इस तथ्य को न भुलाएं कि महावीर ने असंग्रह का विधान आधिक समीकरण के लिए नहीं किया था। उनके सामने गरीबी और ममीरी की समस्या नहीं थी। उनके सामने समस्या थी मानसिक शान्ति की, संयम की ली को प्रज्वलित रखने की और आत्मा को पाने की। अर्थ का संग्रह इन तीनों में बाधक था। इसीलिए महावीर ने असंग्रह को महानत के रूप में प्रस्तुत किया। भगवान् का निश्चित अभिमत था कि जो व्यक्ति अपरिग्रह को नहीं समझता वह धर्म को नहीं समझ सकता, जो व्यक्ति अपरिग्रह का आचरण नहीं करता, वह धर्म का आचरण नहीं कर सकता। परिग्रह की लौकिक भापा है-अर्थ मोर वस्तुओं का संग्रह । भगवान् की भाषा इससे मिन्न है। यह शरीर परिग्रह है। संचित कर्म परित्रह है। नपं और वस्तु परिग्रह है। चैतन्य से भिन्न जो कुछ है, यह सब परिग्रह है, यदि उसको प्रति मूर्छा है । यदि उसके प्रति मूर्छा नहीं है तो कोई भी वस्तु परिग्रह नहीं है । मू; अपने आर परिग्रह है। वस्तु अपने आप परिग्रह नहीं है। वह मूचा मे जुड़कर परिग्रह बनती है । फलित की भाषा में मूच्छा और वस्तु उनका निमित्त हो सकती है। जिसका मन मूळ से शून्य है, उसके लिए वस्तु फेवल यस्तु है, उपयोगिता का साधन है, किन्तु परिग्रह नहीं है । जिनका मन मा से पूर्ण है, उसके लिए वस्तु परिग्रह का निमित्त है। इस भाषा में परिवार ने दोम्प बन जाते हैं १. अंतरंग परिग्रह-मूर्छा । २. बाह्य परिग्रह-पस्तु । एक बार भगवान् से ज्येष्ठ गिप्प गीतम एक का की ओर मफेल पार चोनेभरो ! रह कितना अपरिग्रही है, इसके पान गुट भी नही। 'पमा गरे मन में भी गुट नहीं है ?' 'मन में तोहै।' ‘फिर धपरिमही नसे ?' १. जिसके मन में मू सार पाम में कुछ नहीं है, . परिम-निय दति २. जिनके पास में जीवन-निर्धार के साधन मारनन मेमनी हमभनी।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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