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श्रमण महावीर
का आना सम्भव नहीं है ?
महावीर ने कब कहा कि तुम कष्टों को निमंत्रण दो । उन्होंने कहा- 'तुम्हारे अभियान में जो कष्ट आएं, उनका दृढ़तापूर्वक सामना करो।"
भगवान् ने स्वयं तप तपा, शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं किन्तु संचित संस्कारों को क्षीण करने के लिए। भगवान् अनेकान्त के प्रवक्ता थे । वे कैसे कहते कि संस्कार-विलय का तप ही एकमात्र विकल्प है। उन्होंने ध्यान को तप से अधिक महत्त्व दिया । उनकी परम्परा का प्रसिद्ध सून है-दो दिन का उपवास दो मिनट के ध्यान की तुलना नहीं कर सकता।
उनकी साधना में तप बहिरंग साधन है, ध्यान अंतरंग साधन । उनका साधनापथ न केवल तपस्या से निर्मित होता है और न केवल ध्यान से । वह दोनों के सामंजस्य से निर्मित होता है। तपस्या के स्थान पर तपस्या और ध्यान के स्थान पर ध्यान । दोनों का अपना-अपना उपयोग ।
उस समय कुछ तपस्वी अज्ञानपूर्ण तप करते थे। वे लोहे के कांटों पर सो जाते। उनका शरीर रक्त-रंजित हो जाता। कुछ तपस्वी जेठ की गर्मी में पंचाग्नितप तपते और कुछ सर्दी के दिनों में नदी के गहरे पानी में खड़े रहते । भगवान् ने इनको बाल-तपस्वी और वर्तमान जीवन का शत्रु घोषित किया।
यदि कष्ट सहना ही धर्म होता तो लोहे के कांटों पर सोने वाला तपस्वी वर्तमान जीवन का शत्रु कैसे होता ?
एक बार गौतम ने पूछा-'भंते ! क्या शरीर को कष्ट देना धर्म है ?' 'नहीं कह सकता कि वह धर्म है।' 'भंते ! तो क्या वह अधर्म है ?' 'नहीं कह सकता कि वह अधर्म है।' 'तो क्या है, भंते ?'
'रोगी कड़वी दवा पी रहा है । क्या मैं कहूं कि वह अनिष्ट कर रहा है ? ज्वर से पीड़ित मनुष्य स्निग्ध-मधुर भोजन खा रहा है। क्या मैं कहूं कि वह इष्ट कर
रहा है ?'
'दवा रोग की चिकित्सा है । मीठी दवा लेने से रोग मिटे तो कड़वी दवा लेना आवश्यक नहीं है । उससे न मिटे तो कड़वी दवा भी लेनी होती है।'
'स्निग्ध भोजन शरीर को पुष्ट करता है, पर ज्वर में वह शरीर को क्षीण करता है।'
'मैं शरीर को कष्ट देने को धर्म नहीं कहता हूं। मैं संस्कारों की शुद्धि को धर्म
१. दसवेआलियं, ८।२७ : देहे दुवखं महाफलं । २. दसवेमालियं, ६३१६ ।