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________________ क्रान्तिका सिंहनाद १४६ वाममार्गी धर्म के पवित्र पीठ पर विषयों को प्रस्थापित कर रहे थे । जनता का झुकाव उस ओर बढ़ रहा था । मनुष्य सहज ही विषयों से आकृष्ट होता है । उसे जब धर्म के आसन पर विषय मिल जाते हैं तब उसका आकर्षण और अधिक बढ़ जाता है । इन्द्रिय-संयम में मनुष्य का नैसर्गिक आकर्षण नहीं है। वर्तमान की प्रियता भविष्य के लाभ को सदा से अभिभूत करती रही है । कामरूप के सुदूर अंचलों में विहार करने वाले मुनियों ने भगवान् से प्रार्थना की—'भंते ! वाममार्ग के सामने हमारा संयम का स्वर प्रखर नहीं हो रहा है । हम क्या करें, भगवान् से मार्ग-दर्शन चाहते हैं ।' -- भगवान् ने कहा - ' विषयों को धर्म के आसन से च्युत करके ही इस रोग की चिकित्सा की जा सकती है । जाओ, तुम जनता के सामने इस स्वर को प्रखर करो पिया हुआ कालकूट विष अविधि से पकड़ा हुआ अस्त, नियंत्रण में नहीं लाया हुआ वेताल जैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही विनाशकारी होता है विषय से जुड़ा हुआ धर्म । " ५. साधना - पथ का समन्वय सुख के प्रति सवका आकर्षण है । कष्ट कोई नहीं चाहता । पर सुख की उपलब्धि का मार्ग कण्टों से खाली नहीं है । कृषि की निष्पत्ति का सुख उसकी उत्पत्ति के कष्टों का परिणाम है । इस संसार का निसर्ग ही ऐसा है कि श्रम के विना कुछ भी निष्पन्न नहीं होता । क्या आत्मा की उपलब्धि श्रम के विना सम्भव है ? यदि होती तो वह पहले ही हो जाती । फिर इस प्रश्न और उत्तर की अपेक्षा ही नहीं रहती । कुछ लोगों का मत है कि भगवान् महावीर ने साधना के कष्टपूर्ण मार्ग का प्रतिपादन किया । इसे मान लेने पर भी इतना शेष रह जाता है कि भगवान् की साधना में कष्ट साध्य भी नहीं है और साधन भी नहीं है । उनकी साधना अथ से इति तक अहिंसा का अभियान है । हिंसा पर विजय पाना कोई सरल काम नही है | अनादिकाल से मनुष्य पर उसका प्रभुत्व है । उसे निरस्त करने में क्या कष्टों १. उत्तरायणापि, २०१४४ : दिसं तु पीयं जह कालकूटं, हणार सत्यं जह मुग्गहीयं । एसे व धम्मो विजोरवन्नो, हवाइ देयान दानि ॥
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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