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________________ १४४ श्रमण महावीर जानकार मनुष्य उसे साधु कहते हैं।" वैदिक परम्परा ने गृहस्थाश्रम को महत्त्व दिया और श्रमण परम्परा ने संन्यास को । साधना का मूल्य गृहस्थ और साधु के वेश से प्रतिवद्ध नहीं है । वह संयम से प्रतिबद्ध है। अभयकुमार ने भगवान से पूछा---'भंते ! भगवान् भिक्षु को श्रेष्ठ मानते हैं या गृहस्थ को ?' भगवान् ने कहा-'मैं संयम को श्रेष्ठ मानता हूं। संयमरत गृहस्थ और भिक्षु-दोनों श्रेष्ठ हैं । असंयमरत गृहस्थ और भिक्षु-दोनोंश्रेष्ठ नहीं हैं।' 'भंते ! क्या श्रमण भी संयम से शून्य होते हैं ?' भगवान् - 'यह अन्तर् का आलोक न सब भिक्षुओं में होता है, और न सब गृहस्थों में। गृहस्थ हैं नाना शीलवाले। सब भिक्षुओं का शील समान नहीं होता। 'कुछ भिक्षुओं से गृहस्थ का संयम अनुत्तर होता है। सब गृहस्थों से भिक्षु का संयम अनुत्तर होता है । भगवान् ने संयम को इतनी प्रधानता दी कि उसके सामने वेश और परिवेश के प्रश्न गौण हो गए। साधुत्व की प्रतिमा बाहरी आकार-प्रकार से हटकर अन्तर के आलोक की वेदी पर प्रतिष्ठित हो गई। ३. धर्म और सम्प्रदाय यदि पात्र के बिना प्रकाश, छिलके के बिना फल और भाषा के बिना ज्ञान १. दसवेआलियं, ७१४८, ४६ : वहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो। न लवे असाहुं साहु त्ति, साई साहु त्ति मालवे ।। नाण-दसण-संपन्नं, संजमे य तवे रयं । एवं गुण समाउत्तं, संजयं साहुमालवे ॥ २. उत्तरज्झयणाणि, ५११६, २० : न इमं सव्वेसु भिक्खूसु, न इमं सव्वेसुऽगारिसु । नाणासीला अगारत्या, विसमसीला य. भिक्खुणो॥ संति एगेहि भिक्खूहिं, गारत्या संजमुत्तरा। गारत्थेहिं य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ।।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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