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क्रान्ति का सिंहनाद
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विजयघोष का विचार-परिवर्तन हो गया। उसने कर्मणा जाति का सिद्धान्त स्वीकार कर लिया।
हरिकेश जाति से चांडाल थे। वे मुनि बन गए। वे वाराणसी में विहार कर रहे थे । उस समय रुद्र देव पुरोहित ने यज्ञ का विशाल आयोजन किया। हरिकेश उस यज्ञ-वाटिका में गए । रुद्रदेव ने मुनि का तिरस्कार किया। वे उससे विचलित नहीं हुए। दोनों के बीच लम्बी चर्चा चली। चर्चा के मध्य रुद्रदेव ने कहा'मुने ! जाति और विद्या से युक्त ब्राह्मण ही पुण्य-क्षेत्र हैं।"
मुनि ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा-'जिनमें क्रोध, मान, हिंसा, असत्य, चोरी और परिग्रह है, वे ब्राह्मण जाति और विद्या से विहीन हैं। वे पुण्य-क्षेत्र नहीं हैं। _ 'तुम केवल वाणी का भार ढो रहे हो । वेदों को पढ़कर भी तुम उनका अर्थ नहीं जानते । जो साधक विषम स्थितियों में समता का आचरण करते हैं, वे ही सही अर्थ में ब्राह्मण और पुण्य-क्षेत्र हैं।"
रुद्र देव को यह बात बहुत अप्रिय लगी। उसने मुनि को ताड़ना देने का प्रयत्न किया। किन्तु मुनि की तपस्या का तेज बहुत प्रवल था। उससे रुद्रदेव के छात्र प्रताड़ित हो गए। उस समय सबको यह अनुभव हुआ
तप का महत्त्व प्रत्यक्ष है, जाति का कोई महत्त्व नहीं है। जिसके तेज से रुद्रदेव के छात्र हतप्रभ हो गए, वह हरिकेश मुनि चांडाल का पुत्र है।'
भगवान् महावीर का युग निश्चय ही जातिवाद या मदवाद के प्रभुत्व का युग था। उसका सामना करना कोई सरल वात नहीं थी । उसका प्रतिरोध करने वाले
१. उत्तरज्जयणाणि,.१२।१३:
जे माहणा जाइविज्जोववेया,
ताईतु खेत्ताई सुपेसलाई॥ २. उत्तरायणाणि,१२।१४:
फोहो य माणो य यहो य जेसि, मोसं बदतं च परिग्गहं च .
ते माहणा जाइविज्जाविहूणा, ताइं तु खेत्ताई सुपावयाई: ३. उत्तरज्झयणाणि, १२।१५:
तुम्मेत्य भो ! भारधरा गिराणं, बटुं न जागाह अहिज्ज वेए ।
उच्चावयाई मुणिणो चरन्ति, ताई तु सत्ताई सुपेसलाई ॥ ४. उत्तरज्जयणाणि, १२॥३७ :
सरयं ए दोसइ तवोविसेसो, न दोसई जाइविसेन कोई। सोदागपुत्ते हरिएतसाहू, जस्सेरिसा इढिमहागुभागा ॥