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श्रमण महावीर
न मुझे अर्थ और हेतु बतलाया और न मधुर वाणी से मुझे सम्बोधित किया। मुझे एक दरवाजे के पास सुला दिया। सारी रात मुझे नींद नहीं लेने दी। इस प्रकार मैं कैसे जी सकूँगा ? मैं इस प्रकार की नारकीय रातें नहीं बिता सकता। कल सूर्योदय होते ही मैं भगवान् के पास जाऊंगा, और भगवान् को पूछकर अपने घर लौट जाऊंगा।" ___ इस घटना के बाद भगवान् महावीर ने नव-दीक्षित साधुओं को उस आनुक्रमिक व्यवस्था से मुक्त कर दिया। उन्हें अनेक कार्यों में प्राथमिकता दी। 'उनकी सेवा करने वाले तीर्थंकर बन सकते हैं, मेरी स्थिति को प्राप्त हो सकते हैं'२-यह घोषणा कर भगवान् ने नव-दीक्षित साधुओं की प्राथमिकता को स्थायित्व दे दिया और चिर-दीक्षित साधुओं की व्यवस्था दीक्षा-पर्याय के क्रमानुसार संविभागीय पद्धति से चलती रही।
सेवा
__ सेवा सामुदायिक जीवन का मौलिक आधार है। इस संसार में विभिन्न रुचि के लोग होते हैं। भगवान् महावीर ने ऐसे लोगों को चार वर्गों में विभक्त किया
१. कुछ लोग दूसरों से सेवा लेते हैं, पर देते नहीं। २. कुछ लोग दूसरों को सेवा देते हैं, पर लेते नहीं। ३. कुछ लोग सेवा लेते भी हैं और देते भी हैं। ४. कुछ लोग न सेवा लेते हैं और न देते हैं।
सामुदायिक जीवन में सेवा लेना और देना-यही विकल्प सर्वमान्य होता है । भगवान् ने इसी आधार पर सेवा की व्यवस्था की।
कुछ साधु परिव्रजन कर रहे हैं। उन्हें पता चले कि इस गांव में कोई रुग्ण साधु है। वे वहां जाएं और सेवा की आवश्यकता हो तो वहां रहें। यदि आवश्यकता न हो तो अन्यत्र चले जाएं। रुग्ण साधु का पता चलने पर वहां न जाएं तो वे संघीय अनुशासन का भंग करते हैं और प्रायश्चित्त के भागी होते हैं ।
भगवान् ने ग्लान साधु की सेवा को साधना की कोटि का मूल्य दिया। संघीय सामाचारी के अनुसार एक मुनि आचार्य के पास जाकर कहता-~'भंते ! मैं आवश्यक क्रिया से निवृत्त हूँ । अव आप मुझे कहां नियोजित करना चाहते हैं ? यदि सेवा की अपेक्षा हो तो मुझे उसमें नियोजित करें। उसकी अपेक्षा न हो तो
१. नायाधम्मकहानो, १११५२-१५४ ॥ २. नापाधम्ममहायो, ८११२ । ३. टागं, ४१४१२।