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________________ तीथं और तीर्थकर सन्देह है। क्यों, ठीक है न ?' ____ अग्निभूति इन्द्रभूति के सामने देखने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे अपने भाई गे कुछ निर्देश चाह रहे हों। पर भाई क्या कहे ? उनका सिर अपने आप श्रद्धानत हो गया । वे बोले, "मंते ! मेरा सर्वथा अप्रकाशित सन्देन् प्रकाश में आ गया, तव उसका समाधान भी प्रकाश में आना चाहिए।' भगवान् ने अग्निभूति के विचार का समर्थन किया। 'अग्निभूति ! क्या तुम नहीं जानते, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है ?' 'भंते ! जानता हूं, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।' 'कर्म और क्या है, क्रिया की प्रतिक्रिया ही तो है । क्या तुम नहीं जानते, हर कार्य के पीछे कारण होता है ?' 'भंते ! जानता हूं।' 'मनुष्य को आन्तरिक शक्ति के विकास का तारतम्य दृष्ट है, किन्तु उसकी पृष्ठभूमि में रहा हुआ कारण अदृष्ट है । वही कर्म है।' "मंते ! उस तारतम्य का कारण क्या परिस्थिति नहीं है ?' 'परिस्थिति निमित्त कारण हो सकती है पर वह मूल कारण नहीं है। परिस्थिति की अनकलता में अंकुर फूटता है, पर वह अंकर का मूल कारण नहीं है। उसका मूल कारण बीज है। विकास का तारतम्य परिस्थिति से प्रभावित होता है, पर उसका मूल कारण परिस्थिति नहीं है, किन्तु कर्म है।' अग्निभूति की तार्किक क्षमता काम नहीं कर रही थी। भगवान् के प्रथम दर्शन में ही उनमें गिप्यत्व की भावना जाग उठी थी। शिप्यत्व और तक-दोनों एक साय कसे चल सकते हैं ? वे लंबी चर्चा के बिना ही संबुद्ध हो गए। वे आए धे इन्द्रभूति को वापस ले जाने के लिए, पर नियति ने उन्हें इन्द्रभूति का नाम देने पो विवश कर दिया। वे अपने पांच सौ शिष्यों के नाथ भगवान् की शरण में मा गए। पाया की जनता कुछ नई घटना घटित होने की प्रतीक्षा में पी। उसने अग्निभूति की दीक्षा का संवाद बड़े आश्चर्य के माय मुना। यह वायुभूति के कानों तक पहुंचा। वे चकित रह गए। उनमें संघर्ष की अपेक्षा जिजाना का भाव अधिका पा। उन्होंने सोचा-धमणनेता में ऐसी पचा विपना :, जिनने मेरे दोनों बड़े भाइयों को पराजित मार दिया। मैं जानता हूं, मेरे भाई संदन में पराजित होने पाले नहीं है। ये धमणनेता की बात्मानुभूति से पराजित हुए है। दापनि मन में भगवान को देखने की उत्कंटा प्रदल हो गई। वे अपने पनि नोगियों को नाप भार भगवान के पास पहुंच गए। भगवान् ने उन्हें संबोधित कर रहा, 'पाति! तुम्हारी पर धारा मंगोपनीय है कि जोपरी पी जीर। नागात देशला शिरीर और
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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