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________________ २८ श्रमण महावीर भगवान् की वाणी के पीछे सत्य बोल रहा था। इन्द्रभूति का ग्रन्थि-भेद हो गया। उन्हें अपने अस्तित्व की अनुभूति हुई। उनकी आंखों में बिजली कौंध गई। वे अपने अस्तित्व का साक्षात् करने को तड़प उठे। वे भावावेश में बोले, 'भंते ! मैं आत्मा का साक्षात् करना चाहता हूं। आप मेरा मार्ग-दर्शन करें और मुझे अपनी शरण में ले लें। भगवान् ने कहा, 'जैसी तुम्हारी इच्छा।' इन्द्रभूति ने अपने शिष्यों से मंत्रणा की। उन सबने अपने गुरु के पद-चिह्नों पर चलने की इच्छा प्रकट की। इन्द्रभूति अपने पांच सौ शिष्यों सहित भगवान् की शरण में आ गए, आत्म-साक्षात्कार की साधना में दीक्षित हो गए। ___ इन्द्रभूति ने श्रमण-नेता के पास दीक्षित होकर ब्राह्मणों की गौरवमयी परम्परा के सिर पर फिर एक बार सुयश का कलश चढ़ा दिया। ब्राह्मण विद्वान् बहुत गुणग्राही और सत्यान्वेषी रहे हैं। उनकी गुणग्राहिता और सत्यान्वेषी मनोवृत्ति ने ही उन्हें सहस्राब्दियों तक विद्या और चरित्र में शिखरस्थ बनाए रखा इन्द्रभूति की दीक्षा का समाचार जल में तेल-बिन्दु की भांति सारे नगर में फैल गया। अग्निभूति और वायुभूति ने परस्पर मंत्रणा की। उन्होंने सोचा, 'भाई जिस जाल में फंसा है, वह साधारण तो नहीं है। फिर भी हमें उसकी मुक्ति का प्रयत्न करना चाहिए।' अग्निभूति अपने पांच सौ शिष्यों के साथ इन्द्रभूति को उस इन्द्रजालिक के जाल से मुक्त कराने को चले। जनता में बड़ा कुतुहल उत्पन्न हो गया। लोग परस्पर पूछने लगे, 'अब क्या होगा? इन्द्रभूति श्रमणनेता के जाल से मुक्त होंगे या अग्निभूति उसमें फंस जाएंगे ?' कुछ लोगों ने कहा-'दोनों भाई मिलकर महावीर का सामना कर सकेंगे और उन्हें अपने मार्ग पर ले जाएंगे।' कुछ लोगों ने इसका प्रतिकार किया। वे बोले, 'इन्द्रभूति क्या कम विद्वान् था ! यह कोई दूसरा ही जादू है। श्रमणनेता के पास जाते ही विद्वत्ता की आंच धीमी हो जाती है। उनके सामने जाते ही मनुष्य विचार-शून्य-से हो जाते हैं। हमें स्पष्ट दीख रहा है कि अग्निभूति की भी वही दशा होगी जो इन्द्रभूति की हुई है।' अग्निभूति अब चर्चा के केन्द्र बन चुके थे। वे अनेक प्रकार की चर्चा सुनते हुए महासेन वन के बाहरी कक्ष में पहुंचे। वहां पहुंचते ही उनकी वही गति हुई जो इन्द्रभूति की हुई थी। वे समवसरण के भीतर गए। भगवान् ने उन्हें वैसे ही संबोधित किया, 'गौतम अग्निभूति ! तुम आ गए ?' अग्निभूति को अपने नाम-गोत्र के संबोधन पर आश्चर्य हुआ। उनका आश्चर्यचकित मन विकल्पों की सृष्टि कर रहा था। इधर भगवान् ने उनके आश्चर्य पर गम्भीर प्रहार करते हुए कहा, 'अग्निभूति ! तुम्हें कर्म के बारे में
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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