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Mahāvīra : His Life and Work *
BY DR. BOOL CHAND, M. A., Ph. D., BOMBAY
[ श्री० डॉ० वूलचन्दजीने इस लेख में भ० महावीरकी जीवनझांकीका मार्मिक दिग्दर्शन कराया है। उनका लिखना है कि म० महावीरका जन्म और लालनपालन एक जनतन्त्रवादी समाजमें हुआ था; जिसमें गहरी मानसिक उथलपुथल मची हुई थी । प्रचलित रूढियोंके प्रति लोगोंको असतोष था और सैद्धान्तिक मतभेद मस्तिष्कको सशक्त बनाये हुये था । तोमी उससमय के समाज पर तीर्थंकर पार्श्वकी धर्मपरम्पराका विशेष प्रभाव पडा हुआ था। इस प्रकार के वातावरण में तीस के युवक महावीरने साधु होना निश्चित किया था । बारह वर्षकी घोर तपस्या और साधना के पश्चात् महावीर पूर्ण ज्ञानी हुये उनकी दया लोककल्याणके लिये अविरल धारामै वही इसलिये वह तीर्थंकर कहलाये । सध व्यवस्था महावीरको अपूर्व थी, जिसमें मुनि आर्यिका श्रावक-श्राविका सम्मिलित थे। गृहस्थोंकोभी उनके सघमें सन्माननीय स्थान प्राप्त था। महावीरके सघका द्वार प्रत्येक प्राणीके लिये खुला हुआ था । गुणोंकी मान्यता थी उसमें मिथ्या आचारविचारको उसमें स्थान नहीं था। ईश्वरको सृष्टिका कर्ता हर्ता कोई नहीं मानता था । मानव स्वयं अपने भाग्यका निर्माता और भोका था । पशुयज्ञका स्थान मानवीय वासनामय पाशविकताको अन्त करनेमें परिणत हुआ था। महावीरका जीवन पार्थिवता के व्हास और आत्माके विकासका प्रतीक था । महावीरने कमजोरके शोषण के लिये शक्तिसंचय करनेको प्रोत्साहन नहीं दिया। उन्होंने समाजमें कच-नीच के भेदभावका आर्थिक संघर्षका और राजनैतिक दासताका अन्त किया था। जैनधर्मके रूपमें उन्होंने arent एक आध्यात्मिक जनतंत्रवाद भेट किया था। उनका सुदेश लोकभाषामें था । उसमें किसी मध्यस्थकी आवश्यकता न थी। लोक सीधे उनकी बात सुनता, समझता और मानता था । मुक्तिके द्वार दीनदलित और हीन मलीन, सबके लिये उन्होंने खोले थे। देवताभी मानव के सामने हीन घोषित किये गये। आत्माका पूर्ण विकास मानवही कर सकता है | चारित्रकी आधारशिला भहिंसा बनी थी। जो जितना अहिंसक था उतनाही अधिक चरित्रवान था वह ! जैनधर्मके मूलस्रोतका भामास श्रमण साहित्य में मिलता है, जिसका विकास वैदिक साहित्य के साथ साथ हुआ। डॉ० विंटरनीने उसकी विशेषतायें बताई थी कि उसमें जाति व आश्रम व्यवस्थाकी उपेक्षा है, उसके वीर केवल देवता या ऋषि न होकर राजा, वणिक या शूङ्गतक हुए हैं। कान्याधार ब्राह्मणोंकी कथावार्ता न होकर प्रचलित कथासाहित्य रहा है। ससारके दुख शोकका चित्रण उसमें खूब है और अहिंसा दयाका प्रतिपादनमी अश्रुतपूर्व है । सोख्ययोगके अनुरूप जैनधर्मही प्राचीन धर्म है, जिसके द्वारा पौद्धिक क्रान्ति हुई, जिसने वैदिक क्रियाके मार्गों अर्गलाका काम किया । ब्राह्मण और श्रमण परम्पराओंका यह सघर्ष बराबर चलता रहा है। महावीर और गोशाल दो प्रथक धर्मप्रवर्तक थे । उनमें गुरू-शिष्यका सम्बन्ध नहीं था। गोशालने आजीविक सम्पदाय चलाया था। वह नियतिवादी या । धर्ममें ज्ञान, कर्मसिद्धांत और सयम-तपका निराला निरूपण हुआ है। शरीरकी दासता
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* This forms the concluding chapter in a book entitled "Mahavira His Life and Teachings" by Dr Bool Chand The book is now in the Press
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