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भी कामताप्रसाद जैन।
जौचनके निर्माणमै भ० महावीरकी अहिंसा ही कार्यकारी थी। जैन साधुनेही उन्हें आईसा, व्रतको आशिक पालने का प्रण कराया था। आगे अफ्रीकाके अनुभवोंने गाधीजीको धर्मतत्व समझनेके लिये उत्साहित किया था। उससमय उनको जैन कवि श्रीराजचन्द्रजीसे वस्तुतत्व समझनेमें विशेष सहायता मिली थी। वह स्वयं लिखते हैं कि " कितनेही धर्माचार्योंके सम्पर्कमें में आया हू, प्रत्येक धर्मके आचार्योंसे मिलने का मैंने प्रयत्न किया है, पर जो छाप मेरे दिलपर रायचदभाईकी पडी वह किसीकी न पड सकी ।...रायचदभाईने अपने सजीव ससर्गसे, टाल्स्टॉयने 'वैकुछ तुम्हारे हृदयमें है' नामक पुस्तकद्वारा, तथा रस्किनने 'अन्दु दिस लास्ट-सर्वोदय' नामक पुस्तकसे मुझे चकित कर दिया।" अफ्रीकाकी कठिनाइयों के प्रसंग म जीने लिखा है कि " मैंने अपनी दिक रायचन्दमाईको लिखीं ! हिन्दुस्तानके दूसरे धर्मशास्त्रियाँसमी पत्रव्यवहार किया। उनके उत्तरमी आये। परन्तु रायचदमाईके पत्रने मुझे कुछ शान्ति दी। कविजीके साथ तो (पत्रव्यवहार) अन्ततक रहा। उन्होने कितनीही पुस्तकें मेजी। उन्हेंमी पढ गया। उनमें 'पचीकरण '-'मणिरत्नमाला''मुमुक्षप्रकरण' योगवासिंह-हरिभद्रसूरिका 'पदर्शनसमुच्चय' इत्यादि ये । १६ अतएव म० जीके शन्दीसेही म० महावीरके धर्मका जो प्रभाव उनपर पड़ा, यह स्पष्ट है।
नेटाल (अफ्रीका ) से म० गाधीने राजचद्रभीको एक पत्र लिखकर सत्ताइस प्रश्न आत्मधर्म विषयक पूछे थे, जिनका उत्तर कविजीने तमी अपने पत्रमें दिया था जिसे उन्होंने कुधार बदी ६ स० १८५० को लिखा था । यह प्रभोसर कवि राजचद्रजीकी पुस्तक 'आत्मसिद्धि' के प्रारममें दिये हैं, जो स० १८७५ में बम्बईसे प्रकाशित हुई थी। इस प्रश्नोत्तरके अवलोकनसे स्पष्ट होता है कि महात्माजीके धर्मसिद्धान्तोंका निर्माण कवि रामचन्द्रजीके उत्तरों पर कितना निर्भर था। उदाहरणतः अहिंसाविषयक प्रश्न लीजिये। म० जीने पूछा या कि " सर्प काटने आवे तो उससमय हमें स्थिर रह कर उसे काटने देना उचित है या मार डालना " कविजीने उत्तर दिया था कि “इस प्रश्नमा में यह उत्तर द् कि सर्पको काटने दो' तो बडी कठिन समस्या आकर उपस्थित होती है। तथापि तुमने जब यह समझा है कि 'शरीर अनित्या है तो फिर इस असार शरीरकी रक्षार्थ उसे मारना क्योंकर उचित हो सकता है जिसकी कि शरीरमें प्रीति है-मोहबुद्धि है। जो आत्महितके इच्छुक हैं उन्हें तो यही उचित है कि वे शरीरसे मोइ न कर उसे सर्पके आधीन कर दें। अब तुम यह पूछोगे कि जिसे आत्महित न करना हो उसे क्या करना चाहिये १ तो उसके लिए यही उत्तर है कि उसे नरकादि कुगतियोंमें परिभ्रमण करना चाहिये। उसे यह उपदेश कैसे किया जा सकता है कि वह सर्पको मार डाले। अनार्यवृत्तिके द्वारा सर्पके मारनेका उपदेश किया जाता है, पर हमें तो यही इच्छा करना चाहिए कि ऐसी वृत्ति स्वामी न हो !" कहना न होगा कि महात्माजीने अपना अहिंसा सिद्धात इस आर्य-सत्यके आधार पर निर्धारित किया था। यही कारण है कि ता० १५ अगस्त ४७ को जब भारत स्वतत्र घोषित हुआ और देशमें साम्प्रदायिक विद्वेषामि जोरसे मडकी तो उन्होंने अत्याचारियोंके प्रतिमी दयामय व्यवहार करनेका उपदेश दिया-बदला न लेने के
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आत्मकथा ११५४-१५९.
६. वही, पृ०२३१-२३३०