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श्री० कामताप्रसाद जैन।
. किन्तु महावीर और बुद्धदेवके सिद्धांतोंमें इसप्रकार बाह्य सादृश्य होनेका कारगमी शेना चाहिये । वह कारण जैनाचार्य देवसेनके 'दर्शनसार' पन्थको देखनेसे स्पष्ट होता है । उसमें लिखा है कि तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथके तीर्थक आचार्य पिहिताश्रवके शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुये, जो भृष्ट होकर मत्स्य भक्षक और अपने मत-धौद्धधर्मके प्रणेता हुये। अपने साधुबीवनमें जैन मुनिवर्याका पालन बुद्धने किया था इस बातको उन्होंने निन्नलिखित शहौसे स्वीकार किया है, बुद्ध कहते हैं :
"वहा सारिपुत्र ! मेरी यह तपस्विता मी-अचेलक (नग्न) या । मुक्ताचार, हस्तापलेखन (इथचट्टा), नष्ट हिमादन्तिक (बुलाई भिक्षाका त्यागी), न-तिष्ट-मदन्तिक (हरिये कह; दी गई मिक्षाको), न अपने उद्देश्यसे किए गएको और न निमन्त्रणको खाता था ।... न मछली, न मास, न सुरा पीता था।... शाकाहारी या।... केशदाढी नोचनेवाला था।" - मल्झिमनिकाय, १।२१२, (हिन्दी), पृ. ४८-४९.
बुद्धकी यह चर्या बिल्कुल दिगम्बर मुनिकी चर्या के अनुरूप है । अतः यह स्पष्ट है कि जैनसुनिपदसे मृष्ट होकर बुद्धने 'मध्यमार्ग का निरूपण किया था। इसलियेही उनके मतका सादृश्य जैनमत और उसके सिद्धातोंसे हैं ! .
जैनोंकी महान तपस्यासे घडा कर बुद्ध मध्यमार्गी बन गये-न यह गृहत्योंकी तरह वासनासक्त थे और नहीं ही श्रमणों के अनुरूप घोर तपस्वी । वानप्रस्थी परिव्राजकोंके समान बुद्धने सन्यासी जीवनमें श्री-सुखकी शिथिस्ताकामी निरोध किया था। उसके विपरीत महावीर योगी और महातपस्वी रहे। डॉ. ल्यूमानने ठीक लिखा था कि " महावीर केवल साधुही नहीं, तपस्वीमी थे । किन्तु बुद्धको बोध प्राप्त होनेपर वह तपस्वी न रहे मात्र साधु रह गये वह । बुद्धने अपना पुरुषार्थ जीवनधर्मपर लगाया । इस प्रकार महावीरका उद्देश आत्मधर्म हुआ तो युद्धका लोकधर्म ! बुद्धने अपना उद्देश्य आत्मधर्मसे विकसित करके लोकधर्म स्थिर किया । इसी कारण वह प्रख्यातभी खूद हुये । बुद्धकी दृष्टि लोक समाजपर लगी-बह सबके थे और उनका आत्मयोगमी सबके लिये था। इस प्रकार उनका धर्म महावीरके धर्मसे सर्वथा-साटरीतिसे जुदा ठहरता है । महावीरके धर्ममें सर्वोच्च भावना आत्मयोग और आत्मत्यागको है । प्रत्येकयुद्ध और बुद्ध- इन दो शोका अर्थ भेद दोनों महापुरुषोंके भेदको सष्ट करता है । प्रत्येक बुद्धका अर्थ यह कि 'जो अपने लिये ज्ञानी हुमा हो।'
"सिरिसासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरस्यो। पिहियासवस्व सिस्सो महाउदो बुड्डफित्तिमुणी ॥ ६ ॥ तिमिपूरणासणेहि अहिगयपवजामो परिम्मदो। रसवर धरिता पटियं तेण एवंत ॥ ७॥ मंसस्स गधि जीदो जहा फले दहिय-बुद्ध-सकरए ।
सम्हा संपलिता त भरतो ग पबिटो ॥ ८॥ -दर्शनसार विशेषके लिये "म० महापौर और मापुर" (सूरत) पृ. ४८-५१ और "बौद्ध समशान " पृष्ट २००-३०४ देखो.