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श्री० कामताप्रसाद जैन।
शोका प्रयोग वनस्पति विशेषके लिये हुभा मिलता है। किन्तु बौदोंके 'विनयपिटक' ग्रंथमें सेनापति सीहका प्रकरण इस अनुमानमे बाधक है। वहाँ बैलके बध करने और वह बैलझा मास बुद्धको आहारमें अर्पित करनेका स्पष्ट उल्लेख है। इससे यह अनुमान होता है कि बुद्ध स्वय और अपने अनुयायियोंको माणिहत्यासे दूर रहने के लिये जैनों के समानही सावधान रखते थे; किन्तु जब कोई ग्रहत्य उनको वह मास देता था जो उनके उद्देशसे नहीं मारे गये पशुको हत्या से प्राप्त हुआ हो, तो वह ले लेते थे । वर्मा आदि देशोंके वौल माजमी इस भ्रामक धारणासे मृतमास ग्रहण करते हैं। जैन धर्ममें ऐसा कोई संदिग्ध स्थल नहीं है-- उसमें मासभोजनका सर्वथा निषेध है । 'पुरुषार्थ सिद्धथुपाय' में उसे स्पष्ट हिंसा पापका कारण और त्याज्य कहा है:- . ,
"न विना प्राणविधातान्मासस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मासं भजतस्तस्मात्प्रसरत्य निवारिता हिंसा ॥ ६५ ।। यद्यपि किल भवाति मास स्वयमेव मृतस्य महिषसषभादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदानितनिगोतनिर्मथनात् ॥६६॥ आमास्वपि पचास्वपि विपच्यमानासु मासपेशीषु ।
सातत्येनोत्पादस्तजातीना निगोतानाम् || ६७ ॥" भावार्य -- "विना प्राणियोंके मारे मास नहीं होता है, इसलिये मास खानेवालेके अवश्य हिंसा होती है । यद्यपि स्वय भरे हुए मैंस, बैलादिकाभी मास होता है, तोभी नहीं खाना चाहिये, क्योंकि उनमें उनके आश्रयसे पैदा होनेवाले अनेक जतुओंकी हिंसा होगी | मांसकी डली चाहे कन्ची हो, चाहे पकी हो, चाहे पक रही हो, उसमें उसी नातिके जतु निरवर पैदा होते हैं, जिस जातिके पशुका यह मास होता है।" इसलिये मास अभक्ष्य है। श्वेताम्बर, जैनोंके 'सूयगसाग' (स्वता) अथर्मे दूसरे -स्कषके छठे अध्ययन अडतीस गाथाओंके अन्तर्गत मासाहार करनेवालोंका वर्णन करके अन्तमें लिखा है :
"ये यावि भूजन्ति तहप्पगार सेवन्ति ते पावम जाणमाणा।
मणं न एय कुशल करन्ती, वायावि एसाबुझ्या अमिच्छा ॥" १. 'माओरी विरालिकाभिधानो बनस्पति विशेष'-अमयदेवसरि। 'भगवतीसूत्र में 'माज्जारकडे 'का अर्थ मुग्धपणी वनस्पति किया है। समिधानसंग्रह-निघट में कपोतको 'कपोदाण्डपुल्य फल' और कुवैकुटको वनस्पति विशेष (श्रीवारक शितिवरी नितनः कुक्कुटः शिति ) लिखा है।
२. महावग ६:३१११ (SBE XVE ) p 115.
३. “जीवक, दोन प्रकारके मांसको मैं (बुद्ध) भोजन कहता है:- मट, अश्रुत, अपरिशक्ति (- जीवका अपने लिये मारा जाना न देखना, न सुनना और न शका होना.)-जीवकसुत्तन्त (२।१।५) मझिमनिकाय (हिन्दी) १०२.. महावण' (विनय पिटक ६:३१:२४ ) मेंमी उपर्युक तीन शोषहित मछली खानेका विधान है। इस तरह अहिंसाको मानते हुयेमी बुद्ध मांसभोजनके सर्वथा विरोधी नहीं थे। .