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भ० महावीर-स्मृति ग्रंथ। अहिंसा-दया और मैत्री भावनाको जैनकी तरह बौद्धमी विशेष महत्त्व देते हैं। समार और वासनासे दोनोंही मानवको सावधान करते हैं। दोनोंही कर्मसिद्धात को मानते और आश्रव-वध शब्दोका व्यवहार करते हैं । किन्तु यह सादृश्य वाह्यरूपही है। गहरे उतरनेपर जैनोंकी अहिंसा और कर्मसिद्धांत वौद्धोंकी अहिंसा और कर्मसिद्धान्तसे विलक्षण ठहरते हैं । जैन अहिंसाका पालक मास-मदिराको कमी छू नहीं सकता, किन्तु बौद्ध भिक्षुगणतक मृतमास ग्रहण करनेमें सकोच नहीं करते । विनयपिटकम ऐसे उल्लेख हैं जिनसे मासता है कि स्वय बुद्धने मास भोजन किया था। उपरान्त बौद्धोंके 'लकावतार सूत्र में मांसमक्षणपरिवतों ' नामक आठवें अध्याय द्वारा मासमक्षणका विरोध बुद्धके मुहसे अवश्य कराया गया है। मूल पिटकसूत्रोंमेंमी जब हुम बुद्धको एक जैनके समान स-स्थावरकी रक्षा करने, रात्रि भोजन न करने, वनस्पतिकायकी विराधना न करनेका सूक्ष्म दयामय उपदेश देते देखते हैं, तो समयमें पडते हैं। हो सकता है कि 'सूकर मव' आदि शब्दोंका अर्थ बुद्धदेवके निकट मास-मत्स्य न होकर कोई विशेष प्रकारका शाकभोजन रहा हो । श्वेताम्बर जैन सूत्रनयों में 'मान्जारकडे' - 'कुकुहमसये आदि
१. 'जीवकसुत्तन्व' (२०१५), 'मज्झिमनिकाय ' (हिन्दी, पृ. २०० और 'महावा' (६।१५।२) में म. बुरके १२५० भिक्षुओं सहित मासभोजन करनेका उल्लेख है।
२. "भगवास्तस्मै तदवाचत् । अपरिमितमहायते कारणमास सर्वमभक्ष्य कृपात्मनो बोधिसत्वस्यतेभ्यस्तूपदेशमात्रं वक्ष्यामि । " इन शब्दोंकि लंकावतारसूत्र में म. गौतम बुद्धके मुखसे मासाहारका निषेध कराया गया है, जिससे सष्ट है कि बौमि मासाहारके विरुद्ध मावना जागृत हुई थी। चीनजापानके कतिपय बौद्धामन इस समयमी मार नहीं खाते हैं। (विशेषके लिये 'जैन-बौद्ध तत्वज्ञान' (सूरत) पुस्तक पृ. १८४११८९ देखिपे।)
३. 'सुत्तनिपात के धम्मिकमुत्तमे दयाभाव रसने के लिये स्थावर और नस जीवोंके प्राण म लेनेका उपदेश ठीक जैन शास्त्र के अनुरूप है -
"पाण न हाने न च घावयेय्य न चानुजन्या इनत परेस ।
सम्वेसु भूतेम निघायदंड ये थावरा ये च तसति लोके ।" 'महावमा (६) फेणियजटिल प्रसगमें लिखा है -"श्रमण गौतममी रातको उचरत = विकाल भोजनसे विरति हैं । अर्थात् गौतम बुद्ध शनिको भोजन नहीं करते हैं।" -- बुद्धा , पृ. १६५.
" सामंजपलमुत्त" (दोनिकाय) १:६२ में साधुधर्ममें बताया है कि " साधु वीज-प्राम-भूतभूतमाम नारासे विरत होता है। एकाहारी, रातको ( भोजनसे ) विरत, विकाल भोजनसे विरत होता है। मूलपीज, पपीज (टाली जो उगता है), फूलबोज, अग्रवीन और पोचवा बीज-बीज-यह या इस प्रकारके बोधप्राम-भूतप्रामके रिनागमे विरत होता है । " वनस्पति कायकी रक्षाका ऐसाही विवेचन जैनशाख 'गोम्मटसार ' (जीवकाट) की योगमार्गणाम किया है । वहा बनस्पति (१) मूलीज, जैसे हल्दी, मदरसा (२) अप्रपोज दमे आर्यक, (३) पर्वचीज जैसे सान-गना, (४) बीज जैसे पिंडालसुरगः (५)ीज जैसे पलास; () बोजवीन जैसे गेहू चना और (५) सम्मूर्छन मिश्रित बीज । प्रामु हनीमी या करता है । जीवदया पाल्नमें युद्धनं पूरा प्यान रक्या; किन्तु परिस्थिति मग समा उनको मृत मासको रट रसना पटी1 (जैन-बौद्ध सरबज्ञान, पृ. १७९.१७८).