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Ahirmsā, the Crest-jewel of Indian Religion and Ethics. BY P. K. GODE, M, A,, Curator, Bhandarkar Oriental Research Institute,
__ Poona 4 [श्री परशुराम कृष्ण गोडे महोदयने इस लेखमें अहिंसाको व्यापकताका दिग्दर्शन कराया है। माप लिखते हैं कि ऐतिहासिकरीया भारतवर्षमें अहिंसा सिद्धान्त ढाई हजार वर्षोंसे प्रचलित है । इस्वी पूर्व ७ वीं शतीके 'छान्दोग्य उपनिषध' (३१७) में इसका उल्लेख हुआ है । भाचाराजसुत्त (१४२ ) में जैनमुनियों के पाव महामतोंमें अहिंसा पहला व्रत बताया गया है। कोदोके निकटमी अहिंसाधर्म मान्य था । सम्राट अशोकके प्रथम द्वितीय एव चतुर्थ धर्मलेखोंमें अहिंसाका उपदेश है। गर्ज यह कि गत दो हजारसे अधिक वर्षोंमें अहिंसाका प्रमाव मारतव्यापी रहा है । मारतीय चरित्रधर्मका अाधार मनाषी ऋषियोंकी विचारधारा रही है। ज्ञानप्रकाशमें चारित्र बढा है । इसी लिये अहिंसा सवही भारतीय धर्मोमें मुकुट-मणि बना हुआ है। जिन व्यकियोंको प्राचीन भारतके अध्यात्मवादमें मास्था है वे अहिंसाकी उपयोगिता और महतासे इनकार नहीं कर सकते । हम अपने दैनिक व्यवहारमें उस व्यक्तिका आदर करतेही है, जो विचारशील होता है और समाजके सुख-दुखमें धुला-मिला रहता है। फिर मला उन ऋपियोंकी क्या बात जो अहिंसाको आगे रखकर लोककल्याणके लिये अपना जीवन उत्सर्ग कर देते थे। वैज्ञानिक युगका माणी उनकी महता पाक नहीं सकता । उन ऋषियोंने पहले आत्मविजयी होना लोकविजयके लिये आवश्यक माना। उन्हें दिग्विजयके लिये बडी सेना आवश्यक नहीं थी और न उन्हें पंचवर्षीय या दसवर्षीय योजनासे मतलब था। वे तो आत्मविजयके लिये जीवन भरको योजनाका मनुकरण करते थे। स्वराज्यकी वह स्वर्ण व्यवस्था थी, जिसमें किसी प्राणाकी हिंसा नहीं थी। वह भोजना द्वेष और चमडके विरुद्ध प्रेम और त्यागभाव पर अवलम्बित थी । ब्राह्मण, धन और बौद्ध-तीनों धर्मों में अहिंसामय स्वराज्यका विवेचन खूब मिलता है। इस लोकतंत्रवादक युगमें अधिकाधिक संख्या के अधिकतम लाभ पहुचाने सिद्धात पर बहुत जोर दिया जाता है। राजनैतिक क्षेत्रके शाता यह जानते है कि आज प्रत्येक राष्ट्र इस सिद्धातको सफल बनानेका हामी है। परन्तु प्रत्येक राष्ट्रका अपना स्वार्थ इस सिद्धांतको सफल बनानेकी परिघ बना हुआ है। अतएव यह सिद्धांत पावहितसे दूर जा पडा है और लोकसंघर्षका कारण बन गया है, जो हिंसा है। दो महायुद्धोंके पश्चात् शान्तिमय उपाय द्वारा इस सिद्धान्तको सफल बनानेका अन्तरराष्ट्रीय उद्योग हो रहा है । अहिंसा उसको पूरा करनेका प्रयल चल रहा है। 'लीग ऑफ नेशन्स से यह प्रयास प्रारंभ हुआ और अब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ( UNO ) में परिवर्तित हो गया है। किन्तु हमें तो भय है कि वह हिंसाका औक उपयोग कर सके। भारतमें महिमाका प्रसार व्यक्तिको आन्तरिक शुद्धिस हुआ या-बहुसंख्याके जनमत पर वह नहीं फैली थी। व्यक्तिक हृदयमें अपना और अपने राष्ट्रका हित साधनेकी पुनीत भावना जागृतकी गई थी-वहा जनमतको आवश्यकता ही क्या थी ? सरासु० परिषदमें बड़ी गहरी राजनतिक चालें चली जाती हैं, पर दे तो सत्य और अहिंसाधर्मके प्रतिकूल है । प्राचीन भारत में सरकारी बल पर हिंसाका प्रचार नहीं किया गया, पल्कि व्यक्तिका हृदयपरिवर्तन करके ठोस स्वराज्यको स्थापना की गई थी। आज अन्तर्राष्ट्रीय
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