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________________ Establishment of World Peace. Br PROF HIRALAL R KAPADIA, MA. [श्री प्रो. हीरालाल रसिम्लाल कापडियाने प्रस्तुत लेसमें म. महावीरके अहिंसा सिद्धान्त की उपयोगिता सिद्ध करते हुये उसके द्वारा विश्वशान्ति स्थापना संभव पता है। प्रत्येक व्यक्ति लोकमें मुख शान्तिका मात्राग्य टेराना चाहता है, परंतु पर मुगम नहीं भोर न मानयका यह स्वप्न अमीतक सर्वाशरूपेण पूर्ण हुभा है। फिरगी पिचशान्तिको स्थापित करना आवश्यकही है । म. महाबीरने अपने पूर्व मोरे निसिल लोरको मयानुयायी बनानेफा सतत उद्योग किया था। लोकमे असतोपका एक मुख्य कारण अहिष्णु भाव है। लोग मतभेद होनेपर दूसरे पक्ष की बात सुनना नहीं चाहते हैं और द्वपको सिरजते हैं। महावारने मानवशे इस श्रुटिसे सावधान किया और उसे अनेकान्त सिद्धान्त यताकर विशाल डाट दी। सत्यके सातपूर्ण दर्शन परिमित युद्धि नहीं कर सकती । महावीर जैसे पूर्ण पुरुषही सत्यके सप्तिम दर्शन कर सके थे। अतएप उनकी अनेकान्त दृष्टिसे मानव मतभिन्नताजन्य असतोपा अन्त करके विश्वशान्तिसें बाधक कारण को मिटा सकता है। अनेकान्तवाद वास्तवमें महिमाकी ही रूप वाणी, प्रयोगमें-बोलबालमें है । अहिमाका प्रकाश नानके कार्य-व्यवहारमें होता है। अनेकान्तम सभी दृष्टिकोण सनिहित है। मत. अनेकान्तवादी रिपक्षीको शव नदी ममसेगा चीक वह उसके दृष्टिकोणको समाकर समाधान करेगा। विपक्षी शत्रकी बात ममाने की क्षमता पाने के लिये क्षात्यन्त नतिक साहस अपेक्षित है । जैन न्यायमें नयबाद - साभंगी वाणी आदि द्वारा अनेकान्तका विशद विवेचन है । आन भईसस्य - संदिग्ध मापण करना बहु प्रचलित है। यह मयकर है - इनमें तो निरा असत्य समापण इतना भयकर न होगा । अनेकातबाद एकपक्षीय वाव्य देनमे मानवको सावधान करता है। अनेकान्त संशयवाद नहीं, बल्कि सर्वतोपूर्ण सत्य है । वह मानवादिली संशयोंको भेटता है। अहिंसा सिद्धान्तका पालन भारतमें गत ३५ वर्षांस किया जा रहा है और जनाके लिये तो यह सिद्धात माणरूप है। जैन गृहस्थोंके जीवनकी प्रत्येक घारा महिसासे अनुमाणित है। हिसाका पूर्ण त्याग जैनमुनि करते हैं । अहिंसा की परिधि अनन्त प्रेममें सीमित है । सचा अहिंसावादी यह मानेगा कि " वह प्रत्येको मेम करता है । जो व्यक्ति उसे क्षति पहुचा चुका है उसके प्रतिभी पह मैत्रीका व्यवहार करता है-कोई उसे क्षमा करो या न करो, यह सबको क्षमा करता है। उसके हृदय में किसी के प्रति द्वेष नहीं होता ! शनके प्रतिभी समताभाव होता है । वस्तुत अहिंसा सिद्धान्त मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्य भावनाओं पर टिका हुआ है। साथही अहिंसावादी अपनी आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को सीमित-अत्यल्प करके सम्पतिका समुचित वटवारा समिष्टिमें होने देता है । यहमी उसका अहिंसा धर्म है । जैन साधु तो पारग्रह नामका एक धागा भी नहीं रखते । महावीरका यह त्यागमय-अपरिग्रह व्रतमी विश्वशान्तिको स्थापना में प्रमुख कारण है । एटम बॉघ अथवा अन्य पावक शनानक प्रयोगसे विश्वशान्ति नहीं सिरजी जा सकती ! विश्वशान्तिको स्थापना महावीरके उपर्युक्त प्रकारसे आर्हिसा धर्मको पालनेसेही हो सकती हैं। लोकके राष्ट्रनेताओंको इस सत्यको जल्दी स्वीकारने में विश्वका कल्याण है !-का..] २९८
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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