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भ० महावीर-स्मृति-ग्रंथ ।
नहीं जान पडता और न यह कहना ही ठीक है कि देश की अस्थिर और अशात तत्कालीन राबनीतिक और सामानिक परिस्थितिके कारण संभवतः साहित्यिक ग्रन्योंका निर्माण हुआ ही न होगा।
किसी देश अथवा मालमें सव प्रकारके भावोंको व्यक्त करनेको शक्ति रखनेवाली एक साहित्यिक भाषाके वर्तमान रहने पर, जनताको बोलचालको भापाका स्वतः विकास होना ही यह सिद्ध करता है कि समयको उसकी आवश्यकता थी। दूसरी बात यह कि तत्कालीन अशात वातावरण कुछ स्थानों और कुछ समय तक किसी प्रकारकी साहित्यिक अथवा सांस्कृतिक उन्नतिके सामूहिक प्रयत्नके अनुकूल भले ही न रहा हो, परतु साहित्य, विद्या अथवा कलाके प्रति व्यक्तिगत रुचि पर उसका बहुत ही कम प्रभाव पडता है | तीसरे काव्य रचनाके लिए अपनाई जाने पर लो भाषा भावादिन्यननको शक्ति पास कर लेती है, उसमें गद्य लिखनेमें विशेष कठिनाई नहीं होती । सस्कृत अयोंका, जिनमें ऐमासका अभाव है, अनुवाद करने के लिए प्राचीन गद्यको उपयुक्तताका समर्थन मी इसी आधार पर किया गया है। अतएव हमारी धारणा है कि चौदहवीं शताब्दीके पूर्व " हिंदी गद्य लिखा कम नहीं गया, आज हमें प्राप्त नहीं है। या तो वह अनेक कारणोंसे नष्ट हो गया, या आज भी अधकारमें है; प्रकाशमें नहीं आ सका ।
इस सवधर्मे एक निवेदन और है। सन ६५० से १२५० के आसपास क्षकके कान्यविकास का ही जब पूर्ण परिचय नहीं मिलता तब गद्यको प्रगति का विवरण प्राप्त न होनेपर निराश होनेकी बात नहीं है । इस कालके जिन कवियों के परिचय प्राप्त हुए हैं वे राजपुताना, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रात, उडीसा, बिहार, और आसाम आदि प्रांतोके हैं। इससे स्पष्ट है कि इतने समयमें हिंदीका पचार इन सभी प्राीमें हो गया था और उज्जैन, श्रावस्ती तथा नालदा आदि स्थानोंमें विद्या और धर्मके केंद्र थे। शिक्षा और धर्म-प्रचार के लिए गद्यकी आवश्यकता होती ही है। अतएव इन. स्थानों में गध-रचना होनाभी सभव है, यद्यपि गद्य ग्रंथोंकी सख्या पद्यसे कम ही रही होगी।
एक वात और । सस्कृतको प्रारमिक गद्य-रचनाओंके उपलब्ध न होनेका एक कारण उसके एक साहित्यिक इतिहासकारनेर यह बताया है कि दही, सुवधु और बाणके अत्यत उन्नत गद्यके
८. पृष्ट-२७१, 'हिंदी भाषा और साहित्य -श्यामसुन्दरदास ।
९. पृष्ट-८४३,ryet on account of the high development which our (Bengali) languago bad already attained through its vast poetical literature, therc would be po difficulty experienced by an author in attempting translation into Bengali pross the most abstruse and metaphysical of Sanskrit worke - 'हिस्ट्री आव वेगाली ग्वेज ऐंड लिटरेचर'-दिनेशचन्द्र सेन, १९१३.
१. पृट-१०, Nothing illustrates more clearly the defects in our tradition than the absence of any early specimen of the prose romance:-'Classical Sanskrit Literature'-A Berricdale Reth, 1923.
११. पृष्ट-१२२, 'मिनबंधु-विनोद', प्रयम माग ।
१२. पृष्ट-२०८, सस्कृत साहित्यकी रूपरेखा - चंद्रशेखर पांडेय और शांतिकुमार नानूराय व्यास, १९४५