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'वीर-वन्दना।'
(श्री० वीरेन्द्रकुमार, एम. ए.) रेकर अनङ्ग-मोहन यौवन, अधरों पर किस धनु ताने, मनसिजकी पुष्प-धनुप-डोरी, तुस तोड ले लो मत्ताने! नन्दन-कामतम अप्सरिर्ग, वनझसल विही तरै पयल; पद रजका उनको दे पराग, तु लौट चला पावन स्थ! वह तीस वर्षका अरुण-तरुग, रतिकी शय्यामी थी प्यासी, रोक्य काम-रमणीके परिगयको निकले तुम सन्यासी !!
बाला-चौवन भोली सुरत, भौहोंमें शत्-सन्धान लिए; चितवनमें देश काल पर शासन करनेका अभिमान लिए! अधरों पर वीतराग मनताकी अनासक मुस्कान लिए; उन अवहेलितसी बलकॉमें शाश्वत चौवन मान लिए! चिर मोह-रात्रि भवकी सभेद्य, भेदन करने चल पढे वीर!
भीषण जट-चेतन युद्धाम, तुम बूम चले नेता सुधीर !! हिंसक पशु-साल बीहड वन, दुर्गम गंभीर गिरिपाटीमें तुम निर्मय विचरे हिंसा, भय, साक्षाद नृत्युकी घाटीने! निर्वसन दिगम्बर, प्रकृति-नक्ष, तुम विकृति विजेता क्षात्र जात; पृथ्वी ससागरा लिपटी थी, तव चरणों पर होने सनाय ! झाडी झंखाड वासतियाँ, बरिया भरती परिरम्भण; विषधर विमोर हो लिपट रहे, नही बल्यों पर दे चुम्बन !!
नाना विधि जीव-जन्तु कोडे, चौंदी, दीमक, सब निर्भय तमः पृथ्वी, जल, अन्बर, तेज, वायु, सब स यावर जडी' जास! तेरी समाधिको सनताके उस वीतराग सालिङ्गिनने सब मिलकर एकाकार हुए, निवन्धन नैरे बन्धनमें ! कैवल्य-ज्योति क्षादिस्य-पुरप, लो तपो हिमाल धुन धवल
तेरो चरणोंसे वह निकली वह समताको गया ऋतु निश्छल !! इस निखिर टिके मणु-मणुके सहर्ष, दिपमता सो विरोध कल्याण-सरितन डूब घले, होगया, वैर आमूल शोध ! तेरे पद-मतके निर्भर तर, सब सिंह मेमने, सुगशायक पीते ये पानी एक साय, तेरी छाया ओ रक्षक ! जिन-कवर्ति, नाता तों पर हुम तुम्हारा नव-शासन, वोनों कारो, तीनों लोकों पर विद्या तुम्हारा सिंहासन !!
શિક