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________________ वे वर्द्धमान् ! वे मूर्तिमान् वरदान, उन्हें शत्-शत् प्रणाम 'तन्मय,' बुखारिया मदिराको मादक गन्ध कि ज्यों उठ भाती सहसा निमिषाम, परिपाली रस नही टिकती ज्यो विधि-विवशा-सी लरसोंमें, स्याही पशुतो क्या, मानवमी प्राण न तय रक्षित रहते, अनगिन मर जाते थे निरीह, प्रतिपाद न पर मुंहसे कहते; यज्ञों की रूदि मुक प्रचलित क्या नगर-नगर क्या ग्राम-ग्राम ! पे बर्द्धमान ! वे मूर्तिमान् वरदान, उन्हें शत्-शत् प्रणाम ! मन्दिर ममान से लगते थे, म मानो मदिरालयही थे, संशा थी उनकी यन, किन्तु सचमुच वै भूत प्रलय ही थे, स्वच्छन्द पना था अनाचार, उन्मुक्त यापकी माया थी, जिस प्राणीके मुसपर देसी, हंस रही मृत्युकी छाया थी, यज्ञस्थलमै बिखरा फिरता प्रति भोर छोर अधजला चाम ! चे वर्धमान वे मूर्तिमान वरदान, उन्हें शत्-शत् प्रणाम ! जैसे अकाल के समय सृष्टि तरसा करती है जलघरको, भावुकता र तरसती है वीणाके मोहक, मृदु स्वरको, स्याही उस समय कोटिजन कर रहे प्रतीक्षा ठासुकसे, उस एक पुरुपकी जो निर्भय लोहा लेता उस अघ युगसे, मायाहन करते ही कटते जनताले बोमिल सुबह-शाम ! वे बईमान वे मूर्तिमान वरदान, उन्हें शत् शत् प्रणाम ! आखिर प्रार्थना हुई ही फिर फलवती,नगर कुण्डलपुरमै, . सपनों में कोई झलक गया ही निशलाके पावन वरमे; सिद्धार्थ हुए सिद्धार्थ सत्य, पुर-वासी मानों भूम उठे, पशु-पुरुष माण नारी-पशुको माहाद-विवशसे चूम उठे, .. सेतोंके गर्वित गेहुँने पा लिया मनुजसे रत्न नाम । , वेबमान ! ये मूर्तिमान वरदान, उन्हें शत्-शत्-प्रणाम ! मानवने अपने मानसके, भवनोंके भावुक द्वारों पर, भाशाके हरित पात बाँधे साधाकी वन्दनवारों पर, ना-समझ मा पशुओंकीमी आँखों में एक प्रकाश दिखा, मानों अब निर्भय जी लेंगे, प्राणोंमें मव विश्वास दिखा;, चेतन तो घेतन, जहममी, तबसमागई पुलकन कलाम ! वे पर्वमान ! वे मूर्तिमान घरदान, उन्हें शत्-शत् प्रणाम ! । २४७ ।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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