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The Contribution of Jainism to Indian Culture BY SARI T. K. TOROL, M.A., LL. B., Special Officer, Political Dept.
Secretariat (Bombay) [श्री तुकोल महोदय उच्च राजकर्मचारी और न्यायाधीश रहे हैं। प्रस्तुत लेखमें उन्होंने भारतीय संस्कृतिको जैन धर्मकी देनका प्रमाणिक दिग्दर्शन कराया है । उन्होंने पहलेही सिद्ध किया है कि जैन धर्म एक स्वतंत्र और गति प्राचीन धर्म है । जैन धर्मकी विचारसरणीका प्रभाव भारतीय धर्मोकी विचारधारापर पड़ा है। धर्मके साथ जैन संस्कृतिमी निराली रही हैं। भारतके दैनिक लोक नौवनपर उसका प्रभाव मुलाया नहीं जा सकता-लोकजीवनको जैन सस्कृतिने ऊचा उठाया है। जैन धर्मके आदि सस्थापक अपभदेव थे । आधुनिक इतिहासन पार्क और महावीर इन दो मन्तिम तीर्षकरोंको ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं। किन्तु अब तो ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं जिनके आधारसे यह मानना ठीक है कि जैन धर्म हिन्दू धर्म (वैदिक धर्म ) इतना प्राचीन अवश्य है । जैन धर्मके सैद्धान्तिक मन्तव्याम आदिकालीन विचारोंका अस्तित्व मिलता है-(जेनोंका अणुवाद अति प्राचीन है ) जिनका प्रभाव भारतीय दर्शन शास्त्रमें दृष्टव्य है । जैन धर्मका प्रचार उत्तर और दक्षिणमारतके दोनों भागोंमें रहा है। उत्तर भारतके शिलालेखोंसे एव अनुश्रुतियोंसे उन राजाओंकी कीर्ति गाथा
ओंका पता चलता है, जो जैन धर्म के अनुयायी या उसके सरक्षक थे। गुजरातकेन्मसिद्ध समाद कुमारपाल जैन धर्म में दीक्षित किये गये थे। दक्षिण भारतको जैन कीर्तिया इतिहासके पृष्टपृष्ट पर अकित हैं। सम्राट अशोकके समयसे वहा जैनका प्रमाव स्पष्ट हैं । दक्षिणमें १२ वी शताब्दिक तक ऐसा कोई राजयशही न हुआ जिस पर जैनधर्मका प्रभाव न पा हो ! दक्षिणके राजवंशोंमें कदम्ब, गंग, रस, राष्ट्रकूट और कलचूर्ये प्रमुख थे। इन सवका राष्ट्रधर्म जैन था। उनकी प्रभाभी जैन थी। इस प्रकार राज्यप्रश्रय और राजनैतिक महत्व प्राप्त करके जैनाचार्यों और जैन नेताओंने जनताका मनोवैज्ञानिक पथ प्रदर्शन किया । परिणामतः जनताको प्रत्येक धार्मिक विषय वैज्ञानिक दृष्टि से समझ ,नेका बोध प्राप्त हुआ। जैनधर्म ईश्वर कर्तृत्ववादको नहीं मानता, बल्कि यह तो कहता है कि प्रत्येक
प्राणी स्वयं परमात्मा बन सकता है। वह स्वयं अपने जीवका निर्माता है। दूसरेकी कृपा पर मानव । को जीवित नहीं रहना चाहिये। जैनधर्मको इस शिक्षासे भारतकी धार्मिक विचारधारामें विचारस्वातंत्र्यको सष्टि हुई और यह उसकी अपूर्व देन है। पुरोहितवादके गढकी नींप इससे हिल गई थी। जैनधर्मने यज्ञ, श्राद्ध, तर्पण आदिको निरर्थक घोषित किया और याशिको हिंसाका अन्तही कर डाला । जीव-अजीवका मेद जैनका निराला है। एकेन्द्रिय-द्वेन्द्रियादि जीव व्यवस्थाको अन्य मतवाले हेय समझते थे, किन्तु आज विज्ञानसे जब वनस्पति, माण सिद्ध कर दिये गये तो जैन , मान्यता स्वतः ममाणित हो गई। जैन पुद्गलपादमी आधुनिक विज्ञानकी दृष्टिसे अध्ययनकी यस्त है। भारतीय दर्शनवादमें इस प्रकार बैनधर्म द्वारा एक नये वैज्ञानिक दृष्टिकोगका समावेश हुआ। न्याय
शास्त्रमें जैनौका स्यावाद सिद्धांत अद्वितीय हैं। उससे मतमतान्तरोंके प्रति समन्वय माव जागृत • होता है। अन्य मतोंको अनेकान्तवादका पतामी नहीं था। जैनोंका कर्मीसद्धान्तमी विलक्षण है। बामण तो वैदिक कियाफाउको करने और न करनेकोही कर्म मानते हैं। किन्तु जैन प्रत्येक प्राणीके