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श्री० सतीशचन्द्र काला।
किंतु इन शताब्दियोंकी मूर्तिया अप्राप्य हैं । जैन मूर्तिपूजाका सबसे महत्वपूर्ण केंद्र मयुरा रहा है। वहा ककाली टीले पर जो मूर्तिया प्राप्त हुई वे अधिक तर कुपाणकालीनहीं है और उनका निर्माण काल ८२ ई० से १७६ ई० के वीचका है। इन मूर्तियों पर प्रायः दाताओंके नामभी अकित है। जैन मूर्तियोंका दूसरा विशाल सम्रह राजगृहमें प्राप्त हुआ है। स्मरण रहे कि अनेक जैन तीर्थंकरोने मगधर्म या तो जन्म लिया या महाप्रचारभी किया।
जैन धर्मकी दो शाखाओं श्वेताम्बर तथा दिगम्बरको मूर्तियोंमें भिन्नता थी। वेताम्बरोंकी मान्यता है कि पार्वने तो वन्न पहिरनेकी अनुमति दी, परंतु वर्धमान्ने नाम रहनेका आदेश दिया। १२ वीं शताब्दीके बाद अधिकतर मूर्तियोंमें लिंगको हाथोंके नीचे छिपानेकी प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। ___प्रस्तुत संग्रहालयमें इस समय अनेक जैनधर्म सबधी मूर्तिया सग्रहीत हैं। इनमें अधिकतर नसो, कौशाम्बी, तथा खजुराहोसे आई है। अभी तक इन पर न तो कहीं लिखा गया है और न ये प्रकाशितही हुई है। सबसे प्रारमिक मूर्ति चद्गप्रमी (चि. स. १) है। यह मूर्ति १९३७ ई० में कौशाम्बीके सडहरोंसे प्राप्त हुई थी। इसका निर्माण काल छठी सातवीं शताब्दीके लगभग नान पडता ई । मृतिका मुह खडित हो गया है।
वीर्थकर पलथी मार कर ध्यान मुद्राम बैठे हैं। इथेली तथा पैर के तलवों पर कमल तथा पक्ष पर श्रीवत्स चिन्ह अकित है। कमलके आसनके नीचे अल्ला दिशाओंकी ओर देखते हुये दो सिंह हैं। इनके बीच लटकते पर्देमे तीर्थंकरका लक्षण अर्द्धचन्द्रका है। सिरके पीछे' सुदर अलकरण युक्त एक प्रमामडल है। सिरके ऊपर एक एक छत्रके अपर ढोलका है और उसके दोनों ओर दो गर्व हैं। तीर्थकरके अगल बगलमें बवर लिए दो चरमी खहे हैं।
कलाकी दृष्टिसे यह मूर्ति अद्वितीय है। तीर्थकरके शारीरिक अवयव अति लावण्यमय है।
चंद्रप्रभ तीर्थकरकी एक और मूर्तिभी प्रयाग सग्रहालयमें है। यह इलाहबाद जिलेमे स्थित असो नामक स्थान प्रात हुई है । जसोसे एक दर्जनके लगभग मूर्तिया प्राप्त हुई है और ऐसा प्रतीत होता है कि यहा पर इस धर्मका कोई प्रसिद्ध केंद्र था। इस मृत्ति तीर्थंकर ध्यान मुद्रामें सिहों द्वारा उठाये आसन पर बैठे हैं। दायीं ओर कोने पर हाथोमें कुछ लिए एक देवी तथा बायीं
ओर किसी पुरुषकी आकृति है। तीर्थकरके दोनो और एक र जिन खडे है जिनके पीछे चवरमाही अकित हैं। इनके ऊपर फिर एक बैठे हुये जिन है। तीर्थकरके सिरके अपर एक एक छत्र है जिसके दोनों मोर गर्व है । सिंहासनके मध्यमें एक लटकते पर्दे पर अर्द्धचद्रमा बना हुआ है। इसके साथ किसी फूलका गुच्छाभी है।
जसोसे नेमिनाथकीभी अनेक मूर्तिया लाल पत्थर पर अकित प्राप्त हुई हैं। एक उदाहरण नेमिनाथ कायोत्सर्गकी मुद्रा सिंहासन पर खडे है। पैरोंके दोनों ओर एक र रसक खडे हैं। पैरोंके नीचेसे लटकते पर्दे पर शख चित्रित है। (चि. स. २),
१. कोई उदाहरण देना चाहिये था। सं. म.१३
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