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भ० महावीर-स्मृति-अंध।
प्राप्त अनेक कुषाण-कालीन जैन अभिलेखोंकी मापा जैसी है, अतः इसमें न्याकरणके कई दोषोका। रह जाना आश्चर्यजनक नहीं।
अस्तु, मेरे विचारसे 'न(ण)न्दि आवर्तस' पाठ न होकर 'मुनिसुव्रतस ' होना चाहिए। यदि 'सु' के ऊपर वाले रेफको लेखककी भूल समझी जाय तो शुद्ध पाठ 'मुनिसुव्रतस' होगा। तीसरी पक्तिका अतिम अक्षर 'वि' है। संभव है कि चौथी पंरितमें 'यता जिनः' या 'अईतो' रहा हो । उपर्युक्त पाठ मानने पर लेखका अनुवाद इस प्रकार होगा।
...वर्ष ७९ की वर्षानुके चौथे मासमें वीसवें दिन, इस तिथिमें आर्यवृद्धहस्थिने जो कोटिय गणकी वईर शाखाके [ आचार्य ] थे, अर्हत मुनिसुव्रतकी प्रतिमाका निर्माण करवाया ! [ उनकीही प्रेरणासे ] यह प्रतिमा, जो .....की भार्या श्राविका दिना] का दान है, देवोंके द्वारा निर्मित स्तूपमें [प्रतिष्ठापित की गई, अहंत प्रसन्न हो ।
लेखका वर्ष ७९ निसदेह शक सक्तको सूचित करता है जिसका प्रारम ७८ ई. से हुआ। ककाली टोलेसे मिले हुए अधिकाश लेखोंम इसी सवत्का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत अभिलेखका समय (७९५७८) १५७ ई० आता है । यह कुषाण सम्राट् वासुदेवके राज्यकालमें पडता है, जिसने शक स०७३ (१५१ ई.) से लेकर स० ९८ (१७६ ई.) तक मथुरामें शासन किया। लेखको प्रथम पस्तिके प्रारममें अन्य लेखोंके समानही 'स ७०९ के पहले 'महारानस्य (या राज्ञः) वासुदेवस्य ' शब्द रहे होंगे। उसके पहले समवतः 'सिद्ध नमो अरहतानं ' आदि रहा होगा। कोट्टिय गण तथा वईर शाखाका उल्लेख मथुरासे प्राप्त अन्य अनेक लेखोममी हुआ है।
अब यह विचारणीय है कि प्रस्तुत शिलापट्ट पर किस तीर्थंकरको प्रतिमा रही होगी। यदि लेखका 'मुनिसुव्रत' पाठ ठीक है तो अवश्य उन्हींकी मूर्ति रही होगी। परंतु त्रिरत्न चिन्हके नीचे कमलको बरावर अकित शखसे भ्रम हो सकता है कि यह चिन्ह, जो भगवान् नेमिनाथ या अरिष्ट नेमिका प्रतीक है, सुनतमुनिकी प्रतिमाके साथ क्यों दिखाया गया। इस संबंधौ यह कहा जा सकता है कि कमलकी अगल-बगल रखे हुए दोनों शख (दूसरा पूर्णस्पष्ट नहीं ) तीर्थंकरके प्रतीकरूम नहीं उत्कीर्ण किये गये अपितु जैन धर्मके प्रशस्त चिन्होंके अतर्गत होने के कारण कमल, चक्र, चिरन आदिके साथ यहा चित्रित कर दिये गये हैं। शखनिधिके रूपमें इनका चित्रण मथुरासे प्राप्त कुषाणकालीन अन्य कतिपय शिलाखंडों परमी पाया जाता है। यदि यह कहा जाय कि सुव्रतमुनिका चिन्ह विशेष धर्म यहा क्यों नहीं बताया गया तो कह सकते हैं कि कुषाण तथा गुप्तकालीन कितनीही तीर्थकर मूर्तिया मिली है जिन पर उन-उन तीर्थंकरोंके चिन्ह नहीं मिलते। चिन्हों या प्रतीकका चित्रण मध्यकालसेही विशेष रूपमें पाया जाता है। 'नदिआवर्त' पाठके आधारपर फ्यूहरर, स्मिय
आदिका मत है कि प्रस्तुत शिलापट्ट पर महारहवें तीर्थंकर अरनाथकी, जिनका चिन्ह नांद्यावत है, मूर्ति रही होगी। पख उपर्युक्त कथनके आधारपर यह मत निर्विवाद नहीं प्रतीत होता ।
इस लेखकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात इसमें 'देवनिर्मित बोद्ध स्तूप' का उल्लेख है । इस लेखके मिलनेते पूर्व लोगोंको धारणा थी कि भारतमें सबसे पहले बौद्ध स्तपोका निर्माण किया गया ।