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श्री० कृष्णदत्त वाजपेयी!
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उसक नीचे बाई ओरको मुख किए हुए दीर्घकाय सिंह बैठा हुआ है। इसी प्रकारका सिंह पत्थरके दाहिने किनारे परमी चित्रित रहा होगा | त्रिरत्न तथा चक्रके दाई ओर अपने बाएँ हाथमें वस्त्र डाले हुए एक साधु पूजक खडा है। उसके समीपही इसी प्रकारकी अन्य दो या तीन पुरुष प्रतिमाएँ रही होंगी, जो टूट गई है। ककाली टीलेसे मिली हुई तीर्थंकर प्रतिमाओंकी अधिकाश चौकियों पर इसी प्रकार एक ओर पुरूष-पूजक तथा दूसरी ओर स्त्री श्राविकायें अकित मिलती है। । इस शिलापट्ट पर उत्कीर्ण अभिलेख चार पक्तियोंमें था, परतु अब केवल तीन पक्तियाँ शेष 'हे। तीनों पक्तियोंके अतिम शब्द पूर्ण हैं परंतु आदिके अक्षर टूट गये हैं। चौथी पक्ति, जिसमें चार या पाँच अक्षर रहे होंगे, बिलकुल टूट गई है | लेखको स्मिथने इस प्रकार पढा है--
(प० १)...स ७० ९ व ४ दि २० एतस्या पूर्वाया कोट्टिये गणे वईराया शाखाया (१०२)..को अय वृषहस्ति अरहतो नन्दि आ] वर्तस प्रतिम निवर्तयति (प० ३)...भार्यये श्राविकाये [ दिनाये ] दान प्रतिमा वो थूपे देवनिर्मित प्र...
प्रथम पक्तिमें 'व' के नीचे रेफ न होकर ऊपर हैं, अतः उसे 'ई' पढना ठीक होगा। जर्गन विद्वान् बा० ब्यूलर प्रथम पक्तिमें 'वहराया ' पढते हे ( एपिमाफिया इंडिया, जिल्द २, पृ० २०४, न० २०)। तु दीर्घ 'ई' स्पष्ट है। दूसरी पक्तिमें 'को' के पहले 'वाच' शब्द लगा कर वे 'वाचको पूरा करते हैं। यह असभव नहीं, परतु इस शब्दके पहलेभी एक या दो शब्द रहे होंगे। दूसरी पकिरें 'इस्ति' को 'इस्थि' पढना ठीक होगा, क्यों कि 'सि' के नीचे का वर्ण गोल है और उसके बीचका विदुभी दिखाई देता है। इसी पक्तिमें ' नन्दि' के स्थान पर व्यूलर 'मन्दि' पढते हैं। मैंने लेखकी छापको ध्यानपूर्वक देखा है और मेरा विचार है कि 'न(ण)न्दि आ]वर्तस ' पाठ ठीक नहीं। पहला अक्षर 'न' न होकर 'म' है। इसके नीचेका त्रिभुज खुला न होने के कारणही सभवतः उक्त दोनों विद्वानोंको भ्रम हुआ और एकने उसे 'न' पदा तो दूसरेने 'गन परतु उसके कपरकी माना जैसी रेखाओंकी ओर उनका ध्यान नहीं गया। दूसरा अक्षर निर्विवाद 'नि' है। उसके नीचे एक तिरछी रेखा लगी है। स्मिथ तथा व्यूल दोनोंने इस रेखाको 'द' मान लिया है, जो छापको देखनेसे ठीक नहीं शात होता। मेरा अनुमान है कि लेख उकरने वालेने 'म' के नीचे यह रेखा लगानेके बजाय मूलसे उसे 'नि' के नीचे लगा दिया। अत: अभीष्ट शब्द 'मुनि' के स्थान पर 'मुनि' हो गया, जो अशुद्ध है। तीसरा वर्ण 'अ' या 'आन होकर 'सु' है। इसके ऊपर लगे हुए ऊर्च रेफ (') की ओर उक्त विद्वानोंका ध्यान नहीं गया, पर यह छापमें शष्ट है। अतः इस वर्णको 'सु' मानना चाहिए । चौथा अक्षर 'व' अवश्य है, पर उसके नीचे रकार लगा है, अतएव उसे '' पदना डीक होगा। पाँचवा वर्ण निस्संदेह 'न' और छठा है। इन दोनोंके ऊपर रेफ लगेसे दिखाई पड़ते हैं। स्मिय तथा न्यूलरने के ऊपर तो रेफ माना है पर 'स' के ऊपर नहीं। मेरे विचारले दोनों वर्गों के अपर के रेफ (यदि वे हैं) अप्रासंगिक हैं, और लेखककै प्रमादक्शही आगये होंगे। लेखकी भाषा मपुररसे