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जैन-विद्या। (ले० श्री. डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, एम. ए., डी, लि., नई दिल्ली)
जैन-साहित्य और कलाकी सामग्रीके आधारपर भारतीय संस्कृति और इतिहासकी सामग्रीका उद्धार जैन-विद्याका क्षेत्र एव ध्येय होना चाहिये । पच्छिमी विद्वानोंने लगभग सौ वर्ष पहले बौद्ध साहित्यके उद्धार और प्रकाशनकी ओर ध्यान दिया । उसी सिलसिलेम बौद्ध धर्म सम्बन्धी कलासामग्री कामी प्रकाशन और अध्ययन शुरू हुआ। उससे भारतीय इतिहास और सस्कृति के बहतसे नये पर्दे खुल गए ! बौद्ध-विद्याका साहित्य अब इतना बढ़ गया है कि उससे एक जन्ममें पार पाना मुश्किल है । उस साहित्यके छिपे हुए अनमोल ग्रन्थ चीन, बर्मा, सिंहल, स्थाम, तिब्बत, काश्मीर, मध्यएशिया आदि देशोंसे प्राप्त हुए हैं। सुदूर मगोलिया, कोरिया, जापाननेमी वौद्ध साहित्यके पुनरुद्धारमें अपनी मेंट बढाई है। बौद्धकलाकी सामग्री भी खोजते-खोजते एशिया भूखडके बहुत बडे मागमें छाई हुई मिली है । बौद्ध-विद्याकी अनेक छोटी बडी धाराओने मिलकर भारतीय संस्कृतिकी महागंगाका जी खोलकर विस्तार किया है । भारतकी संस्कृति अपने इस रूप-सपादनसे आज बहुत कुछ जगमगा उठी है।
कर्तव्य कर्मका कुछ-कुछ वैसाही उद्देश्य और मार्ग जैन-विद्याके आगेभी बिछा हुआ है। जैनविद्याका भविष्य महान् है। भारतीय संस्कृतिको उसकी देन बहुत बड़ी थी । भविष्यमें भारतीय संस्कृतिकी जानकारी जैन सादित्य और कलाकी सामग्रीसे कितनी वढाई जा सकती है इस प्रभके ठीक-ठीक उत्तरपरही जैन विद्याकी आनेवाली सफलता निर्भर करती है । बुद्धके समकालीन महावीरके समयसेही जैन साहित्यका भारम्भ माना जा सकता है। कहते हैं कि पाटलिपुत्रकी वाचना, माधुरी वाचना और बलभीकी वाचनामें जैन धार्मिक साहित्य या आगम साहित्यका रुम क्रमशः निश्चित हुआ अर्ध मागधीके मूल आगम साहित्यके अतिरिक्त बौद्धोंकी अब कथाओंकी तरह जैनौमिभी धार्मिक ग्रन्योपर बहुतसीही विस्तृत चूर्णियों और टीकाओंका निर्माण एक हजार वर्षों के लम्बे समय तक पहले प्राकृत और फिर सस्कृत भाषामें होता रहा । जिस जिस सालमें यह साहित्य वना उस उस समयका सास्कृतिक चित्र उस साहित्यमें अनायासही समाविष्ट हो गया है । भूगोल, सस्कृति, सामाजिक रहन सहनके हर पहलू पर जैन ' साहित्य प्रकाशकी नई किरणें फैलाता है। रायपसेनियसूत्र में बडे विस्तारसे एक देवविमान और स्तूपकी रचनाका वर्णन किया गया है। ऐसा जान पडता है जने लेखकने सांची-मथुराके स्तूपोंका, उनकी वेदिकाओं और तोरणोंका आखों देखा वर्णन किया हो। साहित्य और कला दोनों एक दूसरेका रूप उनागर करते जान पहते हैं। प्राचीन नूपके सागोपाग वर्णनकी ऐसी बदिया सामग्री भारतीय साहित्यमें अन्यत्र कहीं नहीं है। इसी प्रत्यमें प्राचीन नाट्यविषय परभी अनमोल मसाला है। महावीर के जीवन-चरितको नृत्य प्रधान नाट्य (डास-ट्रामा) में
१. यह श्वेताम्बर जैन साहित्य था। दिगायर मान्यता के अनुसार आगम अन्य पूर्णरूपमें मरम है। -का० प्र०