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Essence of Jainism. BY DR. B. C, LAW, Ph.D , D. Litt , MA, B. L. [प्रस्तुत लेखमें श्री डॉ. विमला चरण लाहाने जैनधर्मका सार सुन्दर शब्दोंमें उपस्थित किया है । वह लिखते हैं कि ज्ञात क्षत्रियोंने भारत वर्षको एक महान् सुधारक मगवान महावीर मदान किए | वह जैनियोंके अतिम तार्थन्कर थे। उनके धर्मको माननेवाले आज लाखों भारतवासी हैं। जैन धर्म बौद्ध धर्मसे प्राचीन हैं । व्यवहारमें यह जीवात्माको परिभ्रमणसे ससार मुक्त करनेका ध्येय रखता है । जैन दृष्टि से सब पदार्थ मुख्यतः जीव और अजीव रूप हैं। जैनधर्मका साधुजीवन कम्नि हैं। उसमें न केवल शरीरपर नियंत्रण, शील, ब्रह्मचर्य, मद्यमास, मधू का निषेधही गर्भित है, परिक मानसिक विशुद्धिमी आवश्यक है, जिसमें विचारकी पवित्रता रखनी होती है तथा ध्यान, प्रायश्चित्त और प्रतिक्रमण करने होते हैं। जैन जीवनमें अहिंमा सिद्धान्त प्रमुख है । अहिंसाका प्रभाष पशुओं तक पर होता है । दूसरेके विषैले दुरमावोंको जीतनेके लिए वह अमोघ मन है । भारतमें अहिंसा प्रधान धर्म माना गया है । जैन धर्ममें अहिंसाकी अपूर्व विवेचना मिलती है । जीवनका अन्तिम स्येय निर्वाण है । निर्वाणमें सुख शान्ति है। उसमें आकाक्षाकी वासना नहीं सताती । वह शास्वत और अपूर्व है । पांडाका वहा अन्त है। मानव एकान्त ध्यानको चरम सीमाको पहुँचकर उसे पाता है। मन वचन कायझी योग क्रियापर नियत्रण रखना भावश्यक है। कर्म, प्रकृति, प्रदेश भादिरूप है। वह एक सूक्ष्म पुद्गल है जो आत्मासे वध जाता है । यह कर्म ज्ञानावय आदि भाठ प्रकारके होते हैं। सभी कर्म पाप और पुन्य रूप होकर जीव आत्माको जन्म मरणके चक्रमें अकडे रखते हैं ! अतएव कर्मका नाश करनेसेही हम सुखी हो सकते हैं जिन कोंसे साता और शुभ बंध होवे पुन्य कहलाते हैं । वे कई तरह के हैं और पापभी कई तरहका है। किन्तु सबसे बडा पाप जीवहिंसा है। असत्य, मायाचारी, क्रोध, मान, लोभ, कुशील और रागद्वेषसे पापका वध होता है। सम्यदर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र आवश्यक है । यह रत्नत्रच धर्म कहलाता है। इनकी विचारणा तीन प्रकारसे होती है अर्थात् विषय, साधक, और माधनरूपमें । सम्यकदर्शन दोनोंकी आधार शिला है। इनके साथ तपश्वरणभी निर्वाण पाने के लिए भावश्यक है । सम्यक् दर्शन होने पर मनुष्यमें, प्रथम, सम्वेग आस्तिक और अनुकम्पा भावना प्रकट होती हैं । बौद्धोनेभी श्रद्धाका कुछ ऐसाही रूप माना है। वे उसे सम्मादिवि कहते है । रत्नत्रय धर्मही मोक्ष मार्ग है ! जैन धर्म स्याहादभी कहलाता है क्योंकि उसमें सत्यका निरूपण सात नयों द्वारा किया गया है । एकान्त प्रान्तिसे बचने के लिए वह सिद्धान्त अपूर्व हैं । क्रिया वाद फर्म वादही हैं, जो मनियावाद, अज्ञानवाद और विनयवादसे भिन्न है। बौद्धोंका सीलब्बत परामास विनय पाद हैं । जीवनको दुःखमय दशा जीपको अपनी करनीकाही फल हैं । सुखसुख जीव स्वय अपनी करणीसे पाता है । वह अकेलाही जन्मता और मरता है और अकेलाही उन्नति या अवनतिको पाता है। लोकसें जीव और अजीव, तत्व हैं । अजीव, धर्म, अधर्म आकाश, काल, पुद्गल, रूप है । प्रत्येक ससारी जीवके दो सूक्ष्म शरीर अर्थात तैजस और कर्माण शरीर हमेशा से साथ रहते हैं। तीसरा शरीर कमी औदारिक और कमी वैकेय वह धारण करता है। कर्मवेधसेही ससारी जीव जन्म मरणके दुख उठाता है । अज्ञान और मिथ्या कर्म के कारण हैं। जीव चेतनामय है, किन्तु शरीरबंधन के कारण वह संसारके अनेक कार्य करता है। उसे हिंसा