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________________ The Jaina Teachings and Ahimsā. BY SRI MATTHEW MCKAY, BRIGHTON ( Sosgax ). [श्री मैथ्यू मैके सा. एक अंग्रेज विवारक और मवक्षा हैं । सत्यान्वेपणको भावनासे प्रेरित हो उन्होंने विश्वका पर्यटन किया है। जैन अन्योंको स्वतः पढकर आप उनके श्रद्धाल हुये हैं। प्रस्तुत लेखमें उन्होंने अपने दृष्टिकोणसे जैन सिद्धान्तका विश्लेषण किया है। वह लिखते हैं कि इस सत्यको पाकर मुझे अमित आनन्द अनुभव हुआ, जिसे मैं सबको वितरण करने के लिये लालायित हु। वह बताते हैं कि जैनी तीर्थंकरोंकी तर्कसिद्ध वाणीको मानते हैं । जो तर्कविज्ञानसे सिद्ध न हो उस पातको वे स्वीकार नहीं करते। यह तीर्थकर चौवीस थे, जिनका उल्लेख वाइचिलमें चोवीस अम पुरुषों ( Elders) के रूपमें मिलता है। अतिम तीर्थकर महावीरके शिष्योंमें यह भ. बुद्धको गिनते हैं । वस्तुत. बुद्ध पाईपरम्पराके जैन मुनि थे । हिन्दू मतमेमी प्रथम तीर्थकर अपमदेवको सर्वज्ञ प्रभु कहा है । जैन मान्यता है कि प्रत्येक जीवात्मा स्वभावतः सर्वज्ञ है। वह असंड और अनादिनिधन है। सुखका पुज है वह । अतएव एक जैनके लिये सासारिक बातें उतने महत्वकी नहीं हैं, जितना कि आध्यात्मिक | साहारिक विभूति तो जनके मार्ग एक अर्गला है। जो धनसम्पत्तिके पीछे पागल बना है, वह अपनी आत्माका अहित करता है। अपने आन्तरिक प्रकाशको क्षीण बनाता है। सुख हमारे भीतर है-दुनियाँमें बाहर कहाँ नहीं है। जैन धर्म सुगम व्यवहार्यभी है। वह निखिल सत्य जो है। सम्यन्चारित्रका अनुसरण जीवात्माको परमात्मा बनाता है। जैनी होनेका अर्थ है सज्जन पुरुष। वह अपने साथी लोगोंको माई मानता है और भात्मोपतिके मागेमें वह उनका सहायक होता है। मैक्के सा. इस मावनासे प्रेरित होकरही आपने देशवासियोंको धर्मतत्व मताने लिये भाषण देते और लेख लिखते हैं। मव, वचन, काय योग द्वारा मारमा पर जो कर्मपुद्गल आकर जमता है, वही अशान्तिका कारण है । सर्व वन्धका मूल वह हैं। मामाका स्वभाव मुक्ति है । बन्धका नाश करके हरकोई मुक्ति पा सकता है। सम्यग्दृष्टि चारित्रधर्मका पालन कर साधु होता है और तब काँका नाशकर परमात्मपद पाता है। मुख्य पाप हिंसा है किसीमी माणीको कष्ट न देना प्रमुख कर्तव्य है-यह अहिंसा हैं। भोजन या शिकार के लिये क्रूर बन कर पशुओंकी हत्या नहीं करना चाहिये । प्रहस्य श्रावक सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करता है । द्वेषसे दूर रह कर सेवा धर्म वह स्वतः पालता है। अपनी आन्तरिक मनोदशाका निरीक्षणभी वह करता रहता है, जिससे युराइयोसे उसका पीछा छुटे प्रगटत- यह चर्या कठिन दिखती है, किन्तु मुमुक इसमें रस लेता है-वह जानता है कि शरीर बंधनसे मुक्त होने परही सच्चा सुख उसे मिलेगा। अतः इमामो भौर आकांक्षाओं को वह जीतता है। अपने आत्मस्वभावको वह पहिचानता जो है। साथकरका भादर्श उसके समक्ष रहता है। पाथाख लोकको जैन चारित्रका महत्व समझने की आवश्यकता है। जैनी तीर्थंकरको पूजा कुछ पानेकी लालसासे नहीं करते । सीकर स्वय मतकस्य हैं 14 उनके निमित्त से अपने पारमध्यानको परिपुष्टि करता है। अष्ट मकारी पूजा त्याग पैराग्य भाव बढाने के लिये है। जैन तीर्थंकरोंने जो सिद्धान्त वाये वे सचमुच लोकके लिये प्रकाशही है। उनका पठनपाठनही शान्तिदायक है। अहिंसा जैन चारित्रको आधारशिला है। अनावश्यक क्षति प्राणियों की प्रहस्य कमी नहीं करता । पर आज यह पुण्यमाव कहाँ है ? हम सब अपनी समस्याका हल
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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