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भ० महावीर स्मृति-पंध।
जैनों के उत्तराध्ययन नामक आगम स्त्र में लिखा है :
सम्मुणा बम्भणी होई कम्मुणा होइ खत्तियो ।
वईसो कम्मुणा होई, सुद्दो होई कम्मुणा ।। अर्थात् कर्मसेही ब्राह्मण, कर्मसेही क्षत्रिय, कर्मसेही वैश्य और कर्मसेही शूद्र शेता है। कर्मका अर्थ मनुष्यका कर्तव्य है। मनुष्यकी महत्ता उसके कर्तव्यसेही है।
सक्खं खु दीसड तो विसेसो न दीसइ जाइ विसेसो को वि। सोवाग पुत्त हरिएस साहूं
जसेरिसा इढि महाणुमागा॥ अर्थात् वास्तवमै तपकीही प्रत्यक्ष विशेषता देखी जाती है । चाण्डाल कुलमें उत्पन्न हुये "हरिकेशी" अपने तपके कारणही महान् हो गये हैं।
जैनोंके सुप्रसिद्ध आचार्य अमितगतिने जातिके विषयमें जो मूल्यवान विचार प्रगट किये है में भी हरेकके मनन करनेके योग्य है।
न जातिमानतो धर्मो सभ्यते देहपारिभिः । सत्य शौच तपः शील ध्यान स्वाध्यायवर्जितः ।। आचारमान भेदेन जातीनां भेदकल्पनम् । न जाति ब्राह्मणीयास्ति नियता क्वापि नान्विकी ॥ ब्राह्मण क्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तत्त्वतः । एकैव मानुषी जानिराधारेण विभज्यते ॥ संयमो नियमः शीलं तपोदानं दमो दया । विद्यते तात्त्विका यस्यां साजातिमहतीसताम् ॥ गुणैः सम्पद्यते जाति गुणध्वसैविपद्यते । यस्तो बुधैः कार्यों गुणवैवादः परः ॥ जातिमात्र मदः कार्यों न नीचत्वप्रवेशकः ।
उच्चत्वदायक सद्धिः कार्यः शीलसमादरः ॥ इन सदका माव यह है कि केवल जातिमात्रसेही धर्मको प्राप्ति नहीं हो सकती । धर्मकी प्रातिका कारण तो सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान और स्वाध्याय है । सच तो यह है कि जाति नामका कोई यथार्य पदार्थही नहीं है । आचार मात्रके मेदसे केवल जाति भेदकी कल्पना हुई है। ब्राह्मणत्व नामकी यथार्य जाति निश्चितापसे किसीमी जगह दीख नहीं पड़ती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारोंकी वास्तवमें एकही मनुष्य नाति है। आचारके मेदसेही इनमें भेद होता