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भगवान महावीरके धर्ममें क्रियाकांडकी वैज्ञानिक स्थिति।
(श्री प. नाथूलाल जैन, साहित्यरत्न, सहितासूरि, न्यायतीर्थ, शास्त्री, इन्दौर)
वस्तुस्वभावका नाम धर्म है । चेतन और अचेतन पदार्योंमें जीव और पुट्रल, ये दो पदार्थ अशुद्ध या विभाव दशामें परिणमन करते हैं । शेष अचेतन धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य अपनी स्वाभाविक अवस्थामें रहते हैं । उक्त बांव और पुगलमें जीव ससारदशामें और पढ़ल कर्मख्य परिणत होनेको दया अशुद्ध होते हुए अनादि काल्से परस्पर बघे रहकर अपने स्वरूपसे च्युत हो रहे हैं । जीवका कर्मके निमित्तसे रागद्वेषादिरूप होनाही उसकी अस्वाभाविक और परतंत्र अवस्था है। उससे छूट कर यह अपने अनंत शनादि गुणोंको अभिव्यक्त कर सके इसीके लिए उस प्रयत्न करना आवश्यक है । स्वरूपका मान हो जाने परही यह जीव अपना प्रयत्न जारी रखफर सफलता प्राप्त कर सकता हैं।
भ. महावीरने स्वय अपनी कर्म परतत्र आमाको अपने पुरुषार्थसे स्वतन्त्र बनाया था और समोसे भगवान या परमात्मा बने थे । म. महावीर का धर्म इसीलिए वैज्ञानिक है कि वे वस्तुकी जो स्वाभाविकता है उसे स्वय प्राप्त कर दूसरोंको उसे प्राप्त करनेका उपदेश देते हैं । आत्माकी स्वाभाविकता उसके अनत शानादि गुणोंकी अभिव्यक्ति है वही उसका स्वरूप है । इसी वस्तुस्वभाव की स्थितिका नाम धर्म है, जिसे ससारी जीवोंको प्राप्त करना है।
इस स्व स्वभावकी प्राप्तिके हेतु जीवको तदनुकूल आवरणभी करना होगा तभी वह उसे पासकता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य लिखते हैं कि जीवको चारित्र गुणके आचरणसे मुक्ति मिलती है
और स्वरूपका आचरणही चारित्र है । मूल चारित्रको धर्म कहते हैं जो उपरामरूप है । मोह क्रोधले रहित आमाका परिणाम उपशम है । पचाध्यायीकार बताते हैं कि मोइकर्मके उदयसे रहित जो आत्माका शुद्धोपयोग है उसीका नाम चारित्र है और वही नियसे मत है । कर्मके ग्रहणकी क्रियाका एक जानाही यथार्थ चारित्र है, वही धर्म है और शुद्धोपयोग है। पंडितप्रवर आशापरजी करते हैं कि सासारिक क्लेदको दूर करनेवाले मुमुक्षको सम्यक चारित्ररूपी छाया वृक्षका सेवन करना चाहिए | परन्तु वह चारित्र वृक्ष सम्यदर्शनरूपी भूमिपर ध्रुतमानरुपी जलसे सींची गई दयारली बडवाला शेना चाहिए । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके बिना चारित्र अचारित्र माना जाता है ।
इस कथनसे यह अभिप्राय निकला कि यथार्थमें आत्मामें निराकुलता या स्परताका होना
१. प्रवचनसार अ, १ ग्य. ६.४० २, पंचाम्पायी अ. ३ . ७५८, ५६४, ३. अनगार धर्मामृत अ. ४ को १, ३.