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भ० महावीर-स्मृति-ग्रंथ।
प्राणी, देहधारीसे मैत्रीभाव होता है। किसीसेमी वैरभाव नहीं; वह किसीके दोषको नहीं देता, किसीके अवगुण प्रगट नहीं करता, वह गुणग्राही होता हैसब दुःखी, पीडित जीवोकी रक्षा कार है । दया करता है, और जो विपरीत मार्ग पर चल रहे हैं, उनसेमी द्वेष नहीं करता, उन्न बुराइयोंका ढढोरा नहीं पीटता । सदा आत्मानुभव, आत्मचिन्तन, मन रहता है। साल मा पृथक अन्य सब वादोंसे दूर हटा रहता है और उसी आशयका उपदेश, बखान, करता रहती हैं।
यदि अपनेको जैनी कहनेवाले लोग, जैन धर्मके सिद्धान्त पर चल्ने लो, तो संसारका उसार अपना उत्यान, स्वपर-कल्याण शीग्रही हो जाय।
दुःख, क्लेल्या, रोग, शोक, अज्ञान, निर्धनता, लडाई, झगडे, युद्ध, मारकाट, लूट तमाम आदि कष्ट जल्दीही मिट जावें । संसार स्वर्गरूप बन जावे । पौराणिक वर्णन साक्षात दिलाई। सुख-शान्ति, स्वास्थ्य, सन्तोषका प्रचार हो।
क्या बैनी नामधारी भाई, महावीर सन्देश पर चलेंगे। अपने व्यवहारसे दैनिक चारकर सिद्धकर देंगे, कि वह वीर भगवान के सच्चे, पूरे उपासक हैं। झूठी मान बढाई, चन्दरोगा वाहीसे डर गए हैं। अपना तन, मन, धन, अपनी सर्व शक्ति, लोकोपकार, जनसेवा, आमा वास्तविक मानवसमाजोद्धार और वास्तविक धर्मप्रचारमें लगावेंगे |
समझानेसे था हमें सरोकार मानो या न मानो तुमहो मुख्तार.
'वीर-सद्धर्म-सन्देश' (पण्डित नायूरामजी 'प्रेमी')
मन्दाकिनी दयाकी जिसने यहां वहाई! हिंसा कठोरवाकी कीचटनी धो भगाई !! समता सुमित्रताका ऐसा अमृत पिलाया ! देपादि रोग भागे भदका पता न पाया!!
सनुष्टि शान्ति सच्ची होती है ऐसी जिससे पहिक क्षुधा पिपासा रहती है फिर न जिससे वह है प्रसाद प्रभुका पुस्तक स्वरूप उसका सुख चाहते सभी है, चखने दो चाहे जिसको
उसही महान प्रभुके सुम हो सभी उपासक ! उस वीर वीर जिनके समर्मक सुधारक!! अतएव तुममा मैले बननेका ध्यान रक्सौ ! भादयामी उसीका माल्के मागे रखो!!
कम्पका समय है निहित हो न हो। पोडी बढाइऑमें मदमच हो न हो।। "सद्धर्मका सन्दसा" प्रत्येक नारी नरम ! सर्वस्वमी लगा कर फैला दो विश्वमरम'