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________________ १२८ भ० महावीर स्मृति ग्रंथ। माधुनिक विशान इनभेसे स्वतन द्रव्यतो सिर्फ पुट्टल एवं धर्मकोही स्वीकार करता है, परंतु वाकीको स्वतन्त्र माने जानेका वैज्ञानिक अनुभव करने लगे हैं । इन द्रव्योंकी सत्ता-सिद्धिके लिये किये जानेवाले प्रयत्नोंकी असफलताके कारण हे (१) विज्ञानकी मौक्तिकता तथा (२) इन द्रव्यांका अमूर्तस्व । ___"They try to detect it [any reality ] assuming that it is a material while it is quite opposite to that," यत्रादिके द्वारा अमूर्त द्रोंको न देखाही जा सकता है, और न मापाही ! इस लिये आत्मा आदिके अस्तित्व एव स्वभावका पता अमी तक नहीं ला सका है। मौतिक साधनों द्वारा अमूर्त द्रन्यों को जाननेमें विनान हमेशा असमर्थ रहेगा इसमें कोई शक नहीं। ___यदि आजका विज्ञान जैन-मन-सम्मत समस्त द्रव्योको स्वीकार नहीं करता है, तो इसका यह तात्पर्य नहीं कि यह सब महत्वहीन हैं। हमें विज्ञान के संकुचित क्षेत्र [मौतिक ] परभी तोयानी उसकी असमयंता पर ध्यान देना चाहिये । वैज्ञानिक लोग आज जिन चीजोंका अभाव अनुभव कर रहे हैं, एव जिनके अभावमें वे बहुदसे प्राकृतिक क्रियाओंका हल नहीं दे रहे हैं वे हमारे शास्त्रोंमें वर्णित हैं। किसीभी अन्यमतके तत्वज्ञान अन्योंमें गति-स्थिति-माध्यम [ धर्म-अधर्म ] का वर्णन नहीं है। काल द्रव्यकी स्वतत्र सत्तामी जैनधर्मकी एक विशेष महत्ता प्रदर्शित कर रही है। वास्तवमें जैनजगत [ षट् द्रव्य] का विवेचन पूर्ण रूपसे सगत एव वैज्ञानिक है । उसका पूर्ण आमास उपयुक्त विवेचनसे मिलता है। (पृष्ठ १० से चार) भूल चले मानव थे ज्ञान हो रहा था विलु . अपनी ही मानवता! धर्म आचरण धर्म प्रतिकूल था! अपनायी हृदयसे थी हिंसामयी तमसाका सवनेही दानवता!। चारों ओर छाया थासभ्यताका ना नृत्य। घोर अन्धकार अधिकार! दिखते अनूठे सत्य!! सूर्य किरण लमिलाप शान्ति तो नान्ति थी! उस युगको थी हुई मची दुकान्ति थी। उसी काल विषय परिस्थितमें नारी निरीह थी अमित बनाई गई लोक कल्याण हित भोगकी केवल सामिग्री वह! एक दिव्य मानव ने प्रेम, स्वार्थ प्रेम था। लिछिन कुल नृपत्ति के दीखता न कहीं सत्य धर्म नेम था। निशलाकी कुक्षिसे छलयलका जटिल बाल दिच्य मार्तण्ड तुल्य जन्म लिया! था इश्यमान विकराल वह पुण्य मयी जन्म तिथि मानो निकट मा गया था मधुमासकी त्रियोदशी महा खेत पक्षकी मलयका महा काल! वीरकी जयन्ती है। - - + Prof. G. R. Jain को Cosmology तथा मो० पद्मराजण्याके एक लेखके आधार पर।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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