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________________ भ० महावीर-स्मृति-अंध। न्यूटनका यह सिद्धान्त Heavenly bodres, के विषयौं भी लागू होता है और इसके लिये गणितसबी सूत्रमी काममें आ गये हैं । उस समय लोग यह शका करते ये कि जब कोई शक्ति खींचती है, तब वह सक्रिय तो अवश्य होगी. अतएव वस्तुमिमी क्रिया होगी | तब फिर आसपासको वस्तुयें क्यों नहीं स्थिति-बदलती दिखाई देती हैं। उत्तरमें क्रियाविरोधक शक्ति [Friction ] के मुकाविले उस शक्तिको बहुत छोटा बताया गया । यदि वह भाकर्षण शक्ति बड़ी हो, तो चल्न अवश्य होगा ही। तो फिर यही पूछा जा सकता है कि जब पदार्थ आपसमें आकृष्ट होते हैं, तो एक दुसरेके ऊपर क्यों नहीं गिरते ? उत्तरमें इसके यह कहा गया कि क्रियाकी गति शक्तिकी वरफ नहीं है, अपितु पृथ्वीके केन्द्रकी तरफ है: जैसे ऊपर फेंका हुआ पत्थर यो वदूककी गोली नीचेही गिरती है। औरमी ऐसीही अनेक बातासे सिद्ध है कि आकर्षण स्थिति जगतकी स्थिति कारण हैं। यहां यह ध्यान रखनेकी बात है कि न्यूटनको स्वयं शक्तिके विषयमें संदेह था-यह मूर्त है या अमुर्त : सापही साथ वह इसे [शक्तिको निष्क्रियभी नहीं मानता था। पर आइंस्टाइनके इसी विषयमें नवीन मतके अनुसार यह शक्ति निष्क्रियभी हो सकती है। पर इसके स्पष्ट रूपका पता अमीतकमी नहीं लग सका है। हावाईने तो इस विषयमें लिखा है "Gravitation is an absolute mystery. We cannot get any explanation of its nature." ___ इस प्रकार अधर्म द्रव्य के प्रायः सभी गुण आइस्टाइनके इस नवीन आकर्षण शक्ति [Freld of Graritation ] में पाये जाते हैं। फिरमी वैज्ञानिक इसे स्वतनरूपमें [ Reahty ] स्वीकार नहीं करते । वे इसकी आवश्यकता अवश्य अनुभव कर रहे हैं और वर्तमानमें वे इसे सहायकके रूपमें, अधर्म द्रव्यको तरह, स्थितिम कारण मानते हैं। ___Ether और Field के स्वरूपमें सिर्फ कार्यका भेद है, बाकी सद गुण समान है जैसे अमूर्तत्व, अदृश्यत्व, लोकाकाश व्याप्ति इत्यादि । इस लिये " धर्म द्रव्य " जैसे Ether से ग्रहण होता है, उसी प्रकार अधर्म द्रव्यकामी Fteld से ग्रहण होनाही चाहिये। [Substitute for अधर्म] स : अमूर्त द्रव्य [५] काल द्रव्य "दव्वपरिवहरूको जो, सो कालो हवेई" पदायोंके परिवर्तनमें काल कारण स्वरूप है। यह उनके परिवर्तनमें वैसेही सहायक है जैसे कुन्सारके मिट्टी-वर्तन निर्माण चर्मे पत्थर । यह पत्थर चक्रमें गति स्वयं पैदा नहीं करता, अपितु गतिमान् बनानेमें सहायक मात्र होता है। कालभी द्रव्य है। क्योंकि इसमें उलाद-व्यय प्रोन्य पाये चावे ।। म्यवहार काल और निश्श्य काल इसीके आधार पर है। प्रौम्यता-वाचकपद "धर्तना"
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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