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________________ भ० महावीर स्मृति-प्रथ। स्यनसे खाँच निकालना वह अदया-पाप समझता था। यथाशक्ति वह निराहार रहता था। मधु (शहद) कामी उसने त्याग किया था, क्योंकि मधुमक्षियों को नष्ट करके मधु इकष्टा करनेको वह अन्याय मानता था। इसी कारण वह अडे भी नहीं खाता था । आहार ओर वनधारण में वह संन्यासी जैसा था। पैर में लाडीको पारखी पहनता या: क्योंकि पशुचमके व्यवहारकोभी वह पाप मानता था। इसीलिये वर्म के जूते नहीं पहनता था। एक स्थल पर उसने ना रहनेको प्रशसा की है और कहां है कि "प्रीम ही तेरे लिये पूरा वन है। उसकी मान्यतायी कि "भिलारी को दिरम देनेकी अपेक्षा, मक्खी की जीवन रक्षा करना श्रेष्ठ है।" उसके इस व्यवहार और कथनसे सट है कि वह अहिंसाधर्मको कितने गभीर भावसे मानता था। उसपर दि० जनाकी मान्यताओंका प्रभाव था। $. Kremer : " Uber die Philosophischen Gedichte des Abul-alā marry." Sitzung berichte der Wiener Akademic CXVII, 6 I 1886 ) [सं. मोट-जैन मुनिजन धर्मप्रचारके लिये पदैव तत्पर रहते हैं-अमानतिमिरको मेंटना उनका पहला कर्तव्य है । जैन पुराणों में विभिन्न विदेशोंमें धर्मप्रचार करने के विवरण मिलते हैं। भारतके पहले ऐतिहासिक सम्राट श्रेणिक विम्धसार जैन थे और उन्होंने महावीर धर्मको मनारित किया था। (स्मिथ, ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑब इडिया, पृ. ४५ ) श्रेणिकके पुत्र राजकुमार अभयके प्रयत्नसे ईरान (पारस्य देश) के राजकुमार मारदक जैनधर्मानुयायी हुये थे। (डिक्शनरी ऑव जैन विव्लोग्रफी, पृ. ९२) वैक्ट्रियाके जिनोस्फिस्ट (जैन श्रमणों) का शेख मगास्थनीजने किया है। (ऐन्शियेन्ट इंडिया, पृ. १०४) मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तमी जैन थे। मोकके सप्तम स्तम्भ लेखसे स्पष्ट है कि उन्होंने धर्मभचारका उद्योग किया था। मन्तमें वह स्वय दिगम्बर जैन मुनि हो गये थे। (नरसिंहाचार्य " श्रवणबेलगोल" और स्मिथ, अली हिस्ट्री ऑव इंडिया, पृ० १५४) अशोकने जिस धर्मका प्रचार किया, वह निरा चौद्ध धर्म नहीं था । अशोक पर जैन सिद्धातोका अधिक प्रभाव था और उसका प्रचार उन्होंने किया था। ('सम्राट अशोक और जैन धर्म ' नामक पुस्तक देखो) अशोकने मिश्र, मैसेडोनिया, कोरन्थ और साइले नामक देशोमि अपने धर्मरज्जुक भेजे थे, किन्तु इन देशोंमें बौद्ध धर्मके चिन्ह नहीं मिलने, बल्कि जैन धर्मका अस्तित्व उन देशों में रहा प्रतिमाषित होता है। मिश्रमें जो धर्मचिन्ह मिले हैं उनका साम्य जैन चिन्होंसे है । (ओरियेंटल, अखबार १८९२, पृ० २३-२४) मा हालमें वहां भारतीय शैलीकी , मूर्तियांमी मिली है। (मॉडर्न रिव्यू , मार्च १९४८, पृ० २२९ ) मिश्रवासी जैनोंके समानही ईश्वरको जगतका कर्ता नहीं मानते थे, बल्कि बहु-परमात्मवादक पोषक थे। परमात्मा उस व्यक्षिको मानते थे जो समन्तरूपेण पूर्ण और सुखी हो। वे शाश्वत आरमाका अस्तित्व पशुओंतक मानते थे। अहिंसा भनेका पाल्न थहातक करते थे कि मछली और मूली, प्यान जैसे शाकभी नहीं खाते थे। वृक्षवल्कलके जूते पहनते थे । अपने देवता होरस (= अहः !) की वे नम भूतिया बनाते थे। (कानाफूस मॉब ऑपो.' जिट्स पृ० १ व स्टोरी ऑव मैन, पृ० १८५-१९९) इन बातोंसे मिश्रम एक समय जैन धर्मका प्रचार हुआ स्पष्ट है । मिनके पास इयोपिया (Ethnopra ) में एक समय जैन घमण रहते थे। (ऐशियाटिक. रिसचेंज, ३-६) मैसीडोनिया या प्रोक मिश्रवासियों के अनुयायी थे। यूनानी तत्ववेत्ता पियागोरस (- पिहिताधव! ) और पिहो (Pyrrho) ने जिनोफिस (जैन धमों) से शिक्षा ली थी। ये जनों के अनुरूपही मामाको अमर अमर और सारभ्रमण (आवागमन ) सिद्धांतको मानते थे।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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